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सम्प्रदान कारक
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गो को ही अधिक उपयुक्त पड़ेगी, क्योंकि वह अन्तरंग है । गो दानक्रिया से अभिप्रेत है, अत: उसका क्रिया-सम्बन्ध अन्तरंग है; जब कि दानक्रिया से अभिप्रेत गौ से भी अभिप्रेत उपाध्याय है, अतः दूर का सम्बन्ध होने के कारण उपाध्याय का क्रियासम्बन्ध बहिरंग है । अब यह शंका हो सकती है कि तब तो कर्मसंज्ञा निरर्थक हो जायगी जिसका किसी प्रकार पाणिनि के वचन सामर्थ्य का आश्रय लेकर, दोनों संज्ञाओं को पर्याय मानकर समाधान किया जा सकता है । कारक - प्रकरण में सामर्थ्य से प्रतीत होनेवाले प्रकर्ष-योग का आश्रय नहीं लिया जाता, किन्तु अन्तरंग - बहिरंग का व्यवहार तो चलता ही है २ । फलतः कर्म और सम्प्रदान का पर्याय होना अनिवार्य हो जायगा ।
वास्तव में सम्प्रदान तथा कर्म के उभयनिष्ठ धर्म का विभेद 'कर्मणा' इस सूत्रस्थ पद के द्वारा हो जाता है कि सम्प्रदानसंज्ञा उसे ही होती है जो करणरूप कर्म से ( कर्मणा ) सम्बद्ध हो – गौ-कर्म के द्वारा उपाध्याय ही अभिप्रेयमाण है, अतः उसे ही सम्प्रदान-संज्ञा होती है, गौ को नहीं ।
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'कर्म के द्वारा सम्बद्ध होना' सम्प्रदान का लक्षण मानने पर भी 'अजान्नयति ग्रामम् ' ( बकरों को गाँव में ले जाता है ) इस उदाहरण में ग्राम को सम्प्रदान नहीं होता, यद्यपि 'नयति' क्रिया के कर्मस्वरूप अज से वह सम्बद्ध है । इसका कारण जानने के लिए हमें पूर्वमीमांसा ( ४।२।१६-१७ ) के मैत्रावरुण - न्याय की सहायता लेनी पड़ेगी । एक वैदिक विधि है -- ' क्रीते सोमे मैत्रावरुणाय दण्डं प्रयच्छति' । यहाँ द्वितीया ( कर्म ) तथा चतुर्थी ( सम्प्रदान ) एक ही वाक्य में विद्यमान हैं । प्रश्न होता है कि इनमें प्रधान कौन है ? पूर्वपक्षी दण्ड ( द्वितीया ) की प्रधानता बतलाकर दण्ड प्रदान की क्रिया को प्रतिपत्तिकर्म ( शेष या गुणीभूत पदार्थ का विहित स्थल - विशेष में विनियोग करने वाली क्रिया ) कहते हैं, क्योंकि दीक्षित व्यक्ति के द्वारा हाथ में धारण किये जाने में दण्ड की कृतार्थता है और द्वितीया विभक्ति से उसी की प्रधानता मालूम होती है, दान की नहीं । इसलिए मैत्रावरुण ( एक पुरोहित- विशेष ) के हाथ में ही दण्ड का प्रक्षेप करना चाहिए ।
किन्तु उत्तरपक्षी यहाँ द्वितीया की व्याख्या 'तथायुक्तं चानीप्सितम् ' का आश्रय लेकर करते हैं, जिससे यह दण्ड प्रधान या ईप्सिततम का बोधक नहीं रहता । दूसरी ओर सम्प्रदान चतुर्थी का मैत्रावरुण की प्रधानता तथा दण्ड प्रदान की गौणता सिद्ध होती है। दूसरे शब्दों में द्वितीया चतुर्थी की अपेक्षा दुर्बलतर है, क्योंकि अर्थ सामर्थ्य अर्थात् कर्तृसंयोग की दृष्टि से चतुर्थी में स्थित अर्थ प्रधान है । फलस्वरूप दण्डप्रदान अर्थंकर्म ( मैत्रावरुण का संस्कारक ) है । दण्डप्रदान यदि अर्थकर्म हो तो चतुर्थी ( सम्प्रदान ) प्रधान हो जाती है, किन्तु प्रतिपत्तिकर्म की दृष्टि में यह अप्रधान होती
१. 'दानक्रियाभिप्रेतगवोपाध्यायोऽभिप्रेत इति तस्य क्रियासम्बन्धो बहिरङ्गः । - उद्योत २, पृ० २५६
२. कैयट २, पृ० २५६ ।