________________
२२६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन है । यही न्याय प्रस्तुत उदाहरण में भी उपादेय है। 'यमभिप्रेति' में यम् के द्वारा उद्देश्यत्व के रूप में शेषित्व प्रतीत होता है और 'कर्मणा' के द्वारा गो आदि शेष के रूप में प्रतीत होते हैं। शेष का अर्थ है-दूसरे के उद्देश्य से प्रवृत्त होनेवाला गुणीभूत पदार्थ । यहाँ पर ( सम्प्रदान की व्याख्या में ) किसी के उद्देश्य से होनेवाली इच्छा के विषय को ही शेष कहते हैं २ । 'ब्राह्मणाय गां ददाति' में उक्त कारण से गौ शेष है। तथा उद्देश्य रूप ब्राह्मण शेषी। ग्राम के प्रति अजा को शेष नहीं कहा जा सकता और न अजा के प्रति ग्राम ही शेषी है, अतः सम्प्रदान की प्राप्ति यहाँ नहीं है ।
इस विवेचन का फलितार्थ है कि उद्देश्य शेषी, अंगी अर्थात् प्रधान होता है, शेष नहीं । गो-दान ब्राह्मण का संस्कारक है, अर्थकर्म है; किन्तु अजानयन ग्राम का संस्कारक नहीं । यदि देवात् ऐसा मान ही लें तो भी परत्व के कारण ग्राम में कर्मसंज्ञा मान कर निर्वाह कर लें।
(२) यदि सूत्र में 'यम्' 'सः' छोड़ दें तथा 'कर्मणाभिप्रैति सम्प्रदानम्' इतना ही अंश रहे तो सम्बद्ध करने वाले अथवा उसके इच्छुक कर्ता को ही सम्प्रदान मानने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा, क्योंकि कर्म के द्वारा कर्ता ही किसी को अभिप्रेत करता है । यद्यपि 'यम्' तथा 'सः' का अध्याहार करके भी सूत्र के उचित अर्थ पर पहुँचा जा सकता है, तथापि अध्याहार का विशेष नियम है; यदृच्छा से यह नहीं होता । जब श्रूयमाण पदों के अर्थों के पारस्परिक सम्बन्ध से आकांक्षा का शमन नहीं होता और अनुपपत्ति रह जाती हो तभी पद-विशेष का अध्याहार किया जाता है। प्रकृत स्थल में 'यम्"सः' के न रहने पर भी श्रयमाण पदों के अर्थों के सम्बन्ध से ही वाक्य निराकांक्ष हो जाता है, अतः अध्याहार की आवश्यकता नहीं रह जाती, प्रत्युत वही अनुपपन्न हो जायगा । अतएव कर्ता में सम्प्रदान का अतिप्रसंग रोकना ही इन सर्वनामों के प्रयोग का फल है।
( ३ ) 'अभिप्रेति' में अभि+प्र+ एति ये तीन पद हैं । इनमें 'अनुव्यचलत्' के समान समास नहीं हुआ है, क्योंकि 'कुगतिप्रादयः' ( पा० २।२।१८ ) के अन्तर्गत जो वार्तिक ऐसे स्थलों में समास का विधान करता है ( उदात्तगतिमता च तिङा ) उसका
१. तुलनीय-वै० भू० सा० की काशिका-टीका, पृ० ३८९ तथा Mimamsa : The Vakyashastra of Ancient India, cbap. xi, para 12 & 15. २. 'तदुद्देश्यकेच्छाविषयत्वं च शेषत्वमित्येव पूर्वतन्त्र निरूपितम्' ।
-वै० भू० सा०, पृ० ३८९ ३. द्रष्टव्य (जै० सू० ३।१।२ )-'शेषः परार्थत्वात्' । शबर:- 'यः परस्योपकारे वर्तते स शेषः। ४. "श्रुतपदार्थसम्बन्धेनैव निराकाङ्क्षत्वेऽध्याहारानुपपत्तिरिति भावः' ।
-यट २, पृ० २५६