________________
२३०
संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन 'भेदस्य च विवक्षायां पूर्वा पूर्व क्रियां प्रति ।
परस्याङ्गस्य कर्मत्वान्न क्रियाग्रहणं कृतम् ॥ -वा० प० ३७।१३१ जब प्रधान क्रिया से सन्दर्शनादि क्रियाएं ( जो व्यक्ति की प्रवृत्ति में अनिवार्य होने के कारण सन्निहित प्रतीत होती हैं ) भिन्न रूप में विवक्षित होती हैं, तब प्रत्येक पूर्ववर्ती क्रिया के प्रति उसका उत्तरवर्ती अंग कर्म हो जाता है और 'कर्म के द्वारा अभिप्रेयमाण' ही तो सम्प्रदान है। इसीलिए 'क्रिया के द्वारा अभिप्रेयमाण' का पृथक् उपन्यास नहीं करके भाष्यकार ने उसे सूत्र के अन्तर्गत ही रखा है। मान लें कि प्रधान क्रिया 'गच्छति' है, इसके अंग हैं-संदर्शन, प्रार्थना तथा अध्यवसाय । संदर्शनक्रिया के द्वारा प्रार्थना-क्रिया आप्यमान ( ईप्सिततम ) है, प्रार्थना के द्वारा अध्यवसाय । इन तीनों से ही प्रधान-क्रिया ( गमन ) आप्यमान है। दूसरे शब्दों मेंप्रार्थना, अध्यवसाय तथा सम्पूर्ण गमन-क्रिया कर्म है। अब ऐसे कर्म से सम्बध्यमान पदार्थ को सरलता से सम्प्रदान की संज्ञा दी जा सकती है (हेलाराज २, पृ० ३३५) ।
ऐसी स्थिति में यह शंका की जा सकती है कि 'ओदनं पचति' में भी तथाकथित क्रियाकर्म ( कृत्रिम कर्म के रूप में स्वीकृत क्रिया ) से अभिप्रेयमाण पदार्थ अर्थात्
ओदन को सम्प्रदानसंज्ञा दी जा सकती है जो असंगत है। इसका समाधान यह है कि क्रियाकर्म के रहने पर भी ओदन को कर्मसंज्ञा देने में बाधा नहीं होगी, यदि अभेदविवक्षा हो
'क्रियाणां समुदाये तु यदकत्वं विवक्षितम् ।
तदा कर्म क्रियायोगात् स्वाख्ययवोपचर्यते' ॥ -वा०प० ३७।१३२ जब सन्दर्शनादि अवान्तर क्रियाओं का समुदाय परस्पर अङ्गाङ्गिभाव से विद्यमान नहीं हो, समान कोटि में ही सभी की स्थिति हो, जिससे समुच्चय' होकर एक ही फल उत्पन्न करने के कारण सभी को प्रधान क्रिया अङ्गीकार कर ले, तब भेदबोधक क्रिया-कारकभाव की प्रतीति नहीं होती । फलतः ऐसी क्रिया कर्मभाव नहीं प्राप्त करती और ऐसी स्थिति में ( पचति आदि ) क्रिया से सम्बद्ध होनेवाला ( ओदनादि ) पदार्थ अपनी मूल आख्या ( अर्थात् क्रिया के द्वारा ईप्सिततम होने से कर्मसंज्ञा ) के द्वारा ही व्यवहृत होता है, सम्प्रदान-संज्ञा के द्वारा नहीं ( हेलाराज ३, पृ० ३३६ )। अभेद-विवक्षा वाले इस पक्ष में समुच्चय के द्वारा अभिधान होता है, इसीलिए अवान्तर क्रियाओं में अंग और अंगी का सम्बन्ध नहीं रहता । प्रधान क्रिया तथा इनके बीच अभेद का बोध होता है, अतएव क्रिया कर्म के रूप में नहीं होती। ___ अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अभेद-विवक्षा में तो कर्म-संज्ञा यहां हुई; किन्तु यदि कोई भेद-विवक्षा करे तो क्या 'ओदन' को सम्प्रदान भी हो सकता है ? उत्तर है कि नहीं; विवक्षा नियत होती है, यादृच्छिक नहीं
१. 'यत्र परस्परनिरपेक्षाणामनेकेषामेकस्मिन् क्रियादान्वयः स समुच्चयः' ।
-न्यायकोश, पृ० ९७४