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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कर्तृत्व को कौन पूछता है ? तथापि 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः' ( यो• सू० १९) मानने में क्या हानि है ?
नागेश के द्वारा करणत्व-विवेचन नागेशभट्ट करण को करणताशक्ति से युक्त मानकर इस शक्ति का निर्वचन करते हैं-'यद्व्यापाराव्यवधानेन क्रियानिष्पत्तिविवक्ष्यते तन्निष्ठा' ( ल० म०, पृ० १२५१ )। जिसके व्यापार के बाद बिना किसी व्यवधान के क्रियासिद्धि विवक्षित हो उसी में रहनेवाली करणता-शक्ति है। स्पष्टतः उपर्युक्त लक्षणों की ही इसमें प्रतिध्वनि है। इसके अनुसार करण-तृतीया का अर्थ 'करणत्व-शक्ति से युक्त' तथा 'क्रिया-करणभाव' सम्बन्ध भी है । करण अन्वय के सम्बन्ध में नागेश ने दो मतों का उल्लेख किया है
(१) तृतीया का ही अर्थ करण है। प्रकृत्यर्थ (बाण का अर्थ ) का उसमें अभेदान्वय होने से 'बाणाभिन्न करण' का बोध होता है । अब इस प्रकृत्यर्थ से अभेदसम्बन्ध से अन्वित तृतीयार्थ का भी अन्वय धात्वर्थ में होता है, जिसके लिए स्वनिष्ठ ( करण, तृतीयार्थ में स्थित ) व्यापार के अव्यवहित बाद में उत्पत्ति होना सम्बन्ध का काम करता है । परिणामतः 'करणबाणीयो वधः' या 'बाणकरणको वधः' के रूप में बोध होता है । यह मत भूषणकार की इस उक्ति का तिरस्कार करता है कि आश्रय तथा व्यापार ये दो शक्यार्थ हैं।
(२) दूसरा मत नागेश का अपना है, जिसके अनुसार करण का अन्वय धात्वर्थव्यापार से होता है, न कि फलांश से। यहाँ उपर्युक्त क्रिया-करणभाव सम्बन्ध का काम करता है । शब्द-शक्ति की यह प्रकृति है कि क्रिया में करण का अन्वय हो । करण का अन्वय व्यापार में होने से ही मीमांसा-दर्शन में 'उद्भिदा यजेत' इस विधिवाक्य में उद्भिद्-शब्द में कहीं मत्वर्थ-लक्षणा न हो जाय, इस भय से इसे नामधेय ( यागविशेष का नाम ) मान लिया गया है। तदनुसार अर्थ होता है-उद्भिद् नामक याग से यज्ञ की भावना करे। यदि ऐसा न होकर ( फल में भी अन्वय होने पर ) व्यापार ( भावना ) में करण के रूप में अन्वय होता तो धात्वर्थ के फलांश में करण के साथ अन्वय होने में कठिनाई नहीं होती और अन्वयानुपपत्ति पर आश्रित लक्षणा का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता कि उसका वारण किया जाय।
भाव यह है कि 'उद्भिदा यजेत' में यदि उद्भिद् का अर्थ वनस्पति लेते हैं तो अभीष्ट अर्थ तक पहुँचने के लिए अर्थ करना होगा-'उद्भिद्वता यजेत' ( वनस्पतियुक्त याग से यज्ञ की भावना करे ) अर्थात् मत्वर्थ-लक्षणा माननी होगी। किन्तु यह जघन्य वृत्ति है, अत: उद्भिद् को यागविशेष का नाम मानकर अभिधावृत्ति से ही
१. ल० म०, कला, पृ० १२५२ ।
२. 'करणं तृतीयार्थः । प्रकृत्यर्थस्य तत्राभेदेनान्वयः । तस्य च स्वनिष्ठव्यापाराव्यवहितोत्तरोत्पत्तिकत्वसम्बन्धेन धात्वर्थेऽन्वय इत्येके'। -ल० म०, पृ० १२५२