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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन ___इस प्रकार करण, हेतु, लक्षण, तादर्थ्य-इन चारों में निमित्तता की समता होने पर भी लक्षण के व्यामिश्रण का प्रसंग नहीं आता। करण और हेतु का विभेद तो व्याकरण का प्रमुख विषय है ही।
'आश्रय' करणतृतीया का अर्थ है-कौण्डभट्ट ___ नव्य-वैयाकरणों में कौण्डभट्ट करणतृतीया के दो अर्थ मानते हैं—आश्रय तथा व्यापार । दीक्षित की मूल कारिका ( सं० २४ ) में 'आश्रय'-शब्द व्यापार को भी अन्तर्भूत करने के कारण उपलक्षण है । करण-लक्षण में सर्वत्र व्यापार की चर्चा है कि इसके व्यापार के अनन्तर बिना व्यवधान के क्रियासिद्धि होती है। यह अव्यवधान ही तृतीया की विशिष्टता है। 'साधकतम' में अतिशय-बोधक तमप् का अर्थ प्रकर्ष मानते हुए कोण्डभट्ट कहते हैं कि अव्यवहित फल को उत्पन्न करने वाले व्यापार से युक्त कारण ही करण है । इसी से व्यापार और आश्रय की शक्यार्थता सिद्ध होती है । 'रामेण बाणेन हतो वाली' इस उदाहरण में बाण करण है, जिसके प्रकृत्यर्थ का अभेदरूप से तृतीयार्थ ( आश्रय ) में अन्वय होता है। इस आश्रय का अन्वय आधेय होने के कारण व्यापार ( करण-तृतीया का दूसरा अर्थ ) में होता है। इस व्यापार का अन्वय भी जनकता-सम्बन्ध से ( क्योंकि यह व्यापार धात्वर्थ का जनक या निष्पादक है ) धात्वर्थ के व्यापार में या प्राण-वियोगात्मक फल में होता है। तदनुसार बोध होता है कि रामनिष्ठ जो व्यापार है उसके विषय के रूप में अवस्थित बाणाश्रयव्यापार से सम्पन्न होनेवाले ( साध्य ) प्राणवियोग रूप फल का आश्रय वाली है । भूषणकार का मत अनेक वैयाकरणों को स्वीकार नहीं। वे व्यापार में तृतीया की शक्ति नहीं मानते तथा तृतीयार्थ आश्रय का ही, अपने में ( करण में ) वर्तमान व्यापार से जन्य होने के कारण, जन्यजनकत्वादि सम्बन्ध से अन्वय दिखला देते हैं । कहने का यह अर्थ है कि इस पक्ष में व्यापार और आश्रय की पृथक् शक्ति नहीं मानी जाती, प्रत्युत आश्रय के अन्तर्गत व्यापार भी समाविष्ट हो जाता है। नागेश भी इसी पक्ष के समर्थक हैं।
ब्रह्मसूत्र में करणत्व-विवक्षा भर्तहरि ने जो अन्य कारकों की करणत्व-विवक्षा बतलायी है उस पर वैयाकरणभूषण में वेदान्तविषयक प्रश्न उठाया गया है। विवक्षा होने पर भी एक ही साथ तो अनेक कारक करण नहीं हो सकते--द्वितीया, सप्तमी आदि विभक्तियों का अवकाश रह ही जाता है। ब्रह्मसूत्र में 'कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्' ( २।३।३३ ) से जीवात्मा के कर्तृत्व की सिद्धि की गयी है कि 'यजेत, जुहुयात्' इत्यादि विधि-वाक्यों की अर्थ
१. द्रष्टव्य-हरिराम, वै० भू० सा० काशिका, पृ० ३७९ ।
२. 'तथा च रामनिष्ठो यो व्यापारस्तद्विषयीभूत-बाणव्यापारसाध्यप्राणवियोगाश्रयो वालीति वाक्यार्थः'।
-प्रौढमनो०, पृ० ५१०