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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अग्निव्यापार के समाप्त होने पर ही पाकक्रिया की सिद्धि होती है। पाकक्रिया की असिद्धि में ( यथा-अग्निना पचति ) तो अग्नि करण के रूप में है ही। इस प्रकार करण-कारक के लिए विषयरूप में क्रिया ही नियत है, उसमें व्यापारयुक्त होना करण का स्वरूपभेद है' । स्मरणीय है कि व्यापारयुक्त क्रिया-विषय को जो हेतु कहा जाता है वह शास्त्रीय हेतु है ( 'कर्ता कर्वन्तरापेक्षः क्रियायां हेतुरिष्यते'-वा० ५० ३।७।२५ उ० ) और वह स्वतन्त्र कर्ता का प्रयोजक होता है ।।
हेतु और करण में एक विशेष भेद किया जाता है कि हेतु के अधीन कर्ता रहता है, जब कि कर्ता के अधीन करण है । 'धूमेनान्धः' में धूम हेतु है, क्योंकि यह द्रष्टा के अधीन नहीं है, प्रत्युत द्रष्टा ही धूम के अधीन है। दूसरी ओर 'दात्रेण लुनाति' में दात्र ( करण ) छेदनकर्ता के अधीन है ( यदधीना कर्तुः प्रवृत्तिः स हेतुः, कर्बधीनं करणमिति हेतुकरणयोर्भेदः ।। इसका कारण है कि हेतु को एक तो क्रियानिष्पत्ति से कुछ लेना-देना नहीं है, दूसरे यदि हो भी तो वह निर्व्यापार ही प्रवृत्त होता है । कर्ता की सार्थकता क्रियासिद्धि में स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त होने में ही है । क्रिया नहीं हो तो कर्ता का स्वरूप ही न रहे। अतः हेतु का स्वरूप ऐसा है कि कर्ता उसे किसी विषय में व्याप्त नहीं कर सकता। दूसरी ओर वह धन, विद्या इत्यादि हेतुओं के अधीन अपना व्यापार संचालित कर सकता है। जैसे—विद्यया यशः । यहाँ विद्या-हेतु के अधीन कर्ता यशोरूपी फल का लाभ करता है। 'लभते' का अध्याहार करके कर्ता की व्यवस्था हो सकती है।
भर्तृहरि इसी विषय को कर्ता से हटाकर क्रिया पर ले जाते हैं। हम देख चुके हैं कि करण तथा हेतु दोनों का साधारण विषय क्रिया भी है। सव्यापार-निर्व्यापार की बात पृथक् है। तो करण क्रिया की निष्पत्ति के लिए होता है, अतएव क्रिया प्रधानभाव से रहती है और करण अप्रधान होता है। क्रिया की इसी प्रधानता के कारण जहाँ श्रूयमाण करण नहीं हो वहां उसके स्थानापन्न पदार्थ को प्रतिनिधि के रूप में रखते हैं । प्रधान रूप में विद्यमान क्रिया साध्य होने के कारण अपने योग्य साधन का आक्षेप करने में पूर्ण समर्थ है, इसमें सन्देह नहीं । तदनुसार क्रियासिद्धि के लिए करण का प्रतिनिधित्व होता है। क्रिया और हेतु का सम्बन्ध इसके विपरीत होता है, क्योंकि क्रिया हेतु के सम्पादन के लिए होती है; अतः प्रधानभूत हेतु के समक्ष वह स्वयम् अप्रधान बनी रहती है। क्रियासिद्धि में सहायक नहीं होने के कारण अश्रुतावस्था में भी इसका कोई प्रतिनिधि नहीं होता। 'अध्ययनेन वसति' में वास क्रिया
१. क्रियासाधन नियतं तु कारकम् । तत्र हि क्रियव विषयभूता नियता, व्यापाराविष्टत्वं च स्वरूपभेदः' ।
-हेलाराज ३, पृ० २५६ २. हेलाराज ३, पृ० २५६ । ३. 'क्रियाय करणं तस्य दृष्ट: प्रतिनिधिस्तथा ।
हेत्वर्था तु क्रिया तस्मान्न स प्रतिनिधीयते' । -वा०प० ३।७।२६