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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
प्रकृष्टोपकारकता नहीं । तब तृतीया कैसे हुई ? वस्तुतः उपकार्योपकारक -भाव होने से तादर्थ्य में चतुर्थी होनी चाहिए । इसीलिए अध्ययनरूप फल को भी हेतु के अन्तर्गत मानकर तृतीया की सिद्धि हुई है । वास्तव में यहाँ हेतु निमित्त, उद्देश्य, प्रयोजन, फल पर्याय रूप में हैं । यही दीक्षित का आशय है । अन्यथा निवास - क्रिया का कारण अध्ययन नहीं हो सकता ।
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नायक केवल गुण और द्रव्य के निमित्त को हेतु मानते हैं, क्रिया के निमित्त को नहीं । उपर्युक्त हेतु निश्चित रूप से अकारक विभक्ति का विषय है । यदि क्रिया का ग्रहण क्रियापद से हो, व्यापार का बोध हो रहा हो तब तो वह कारक-विभक्ति ही है; यथा - विद्यया वसति । यहाँ विद्या निवासव्यापार का निमित्त तथा क्रियानिर्वर्तक है ।
वस्तुतः निमित्त तीन प्रकार का है - ( १ ) स्वरूपभेद से क्रिया का निर्वर्तक होने पर कारक, ( २ ) सामान्यरूप से जनक होने पर हेतु तथा ( ३ ) ज्ञापक होने पर लक्षण । इस अन्तिम निमित्त के लिए पाणिनि-सूत्र है -अनुर्लक्षणे ( १।४।८४ ) | यथा – 'वृक्षमनु विद्योतते' ( वृक्ष को लक्षित करके बिजली चमकती है ) । यहाँ विद्योतन का ज्ञापकनिमित्त वृक्ष है । लक्षण में यही विशेषता होती है कि इसमें अवधि - भाव मर्यादा, सीमा का भी बोध होता है, जो लक्ष्यमाण वस्तु के प्रकाशन में निरूपित होता है' । तदनुसार वृक्ष अवधि के रूप में बिजली चमकने की क्रिया का परिच्छेदक है । 'जपमनु प्रावर्षत्' इत्यादि उदाहरणों में जप वस्तुतः वृष्टि का जनक होने से हेतु है और तदनुसार इसमें तृतीया होनी चाहिए, किन्तु हेतु को ही ज्ञापकत्व - सामान्य से लक्षण मानकर 'अनु' के योग में ( कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया २०३८ ) द्वितीया की गयी है । भट्टोजिदीक्षित इसका अर्थ करते हैं कि वर्षा हेतुभूत जप से उपलक्षित हो रही है अर्थात् जप हेतु ही है । तथापि 'तो' ( २। ३ । २३ ) की प्राप्ति परसूत्र होने पर भी यहाँ नहीं होती, क्योंकि 'लक्षणेत्थम्भूत ० ' ( १/४/९० ) सूत्र से ही ( जो पर में भी है ) कर्मप्रवचनीय संज्ञा की सिद्धि हो जाने पर भी 'अनुर्लक्षणे' ( १२४१८४ ) सूत्र को पृथक् देकर इसकी शक्ति स्फीत की गयी है और फलत: इसी से 'जपमनु प्रावर्षत्' में जप मुख्यतः लक्षण नहीं होने पर भी लक्षणवत् व्यवहृत होकर द्वितीया ग्रहण करता है ।
भर्तृहरिकरण और हेतु का दूसरा भेद विषय वैषम्य के हैं कि हेतु द्रव्यादि ( द्रव्य, गुण और क्रिया ) तीनों का विषय
आधार पर सिद्ध करते
है अर्थात् वह तीनों के
- वा० प० ३।७।२४ उ०
१. 'आश्रितावधिभावं तु लक्षणे लक्षणं विदुः' । २. 'जनकश्च हेतु:, न लक्षणमिति हेतुरेवात्र ज्ञापकत्वसामान्याल्लक्षणशब्देनोक्तः इत्यविरोधः ' । – हेलाराज, पृ० २५१
३. ' हेतुभूतजपोपलक्षितं वर्षणमित्यर्थः । परापि हेताविति तृतीयानेन बाध्यते, लक्षणेत्थम्भूतेत्यादिना सिद्धे पुनः संज्ञाविधानसामर्थ्यात्' । - सि० कौ०, पृ० ४२५