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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
पाणिनि ने तृतीया-विभक्ति का विधान करने वाले सूत्रों में करण तथा कारण को पृथक स्थान दिया है। करण में होनेवाली तृतीया का सूत्र है --'कर्त करणयोस्तृतीया' ( २।३।१८ ), जब कि कारण में 'हेतौ' ( २।३।२३ ) सूत्र से तृतीया होती है । हेतु का प्रयोग व्याकरण में एक शास्त्रीय अर्थ में भी ( हेतुकर्ता ) होता है--- यह हम देख चुके हैं। किन्तु यहाँ हेतु का प्रयोग उसके साधारण अर्थ ( कारण ) में ही हुआ है। हेतु और कारण को न्यायशास्त्र में पर्याय माना गया है । अवश्य ही अनुमान के प्रसंग में केवल हेतु का ही प्रयोग होता है, कारण का नहीं। फिर भी इनकी पर्यायरूपता अक्षुण्ण रहती है, क्योंकि लिंगरूप हेतु भी किसी-न-किसी रूप में कारण रहता ही है; जैसे – 'पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्' । यहाँ पक्ष ( पर्वत ) में वह्निमत्त्व ( साध्य ) को सिद्ध करने के लिए धूमवत्त्व के रूप में हेतु दिया गया है । यही धूमवत्त्व वह्निमत्त्व का कारण भी है, क्योंकि इनमें साध्य-साधन या कार्य-कारण का सम्बन्ध है। पर्वतादि पक्ष में धम का जो ज्ञान होता है उसे परामर्श कहते हैं । इस परामर्श को अनुमितिज्ञान का करण माना गया है और अनुमिति का करण होने से इसी को ( जैसे-वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वतः ) अनुमान भी कहते हैं। नैयायिक इस प्रकार प्रमाणों को यथार्थानुभव का करण मानते हैं--प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रियार्थसंतिकर्ष ( इन्द्रिय, निर्विकल्पक ज्ञान भी), अनुमिति के लिए अनुमान, उपमिति के लिए उपमान और शाब्दबोध के लिए पदज्ञान करण हैं ।
इसी सन्दर्भ में कणाद हेतु, लिंग, प्रमाण तथा करण को भी पर्याय रूप में रखते हैं, क्योंकि प्रमाण प्रमा का करण ( प्रकृष्ट कारण ) है। उसी के अन्तर्गत अनुमान का हेतु और उसका उपर्युक्त परामर्श भी चला आता है। प्राचीन नैयायिक 'परवसाधारणं कारणं करणम्' कहते हुए थोड़ा भिन्न रूप में व्याप्तिज्ञान को अनुमिति का करण मानते हैं जब कि नव्य नैयायिक परामर्श को करण मानने में रुचि दिखलाते हैं ( न्यायकोश, पृ० २०० )। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शनों में करण-कारण के समान्तर प्रयोग का मुख्य आधार प्रमाण-विचार है।
गदाधर ने व्युत्पत्तिवाद ( पृ० २२६ ) में 'धूमेन वह्निमनुमिनोति' इस उदाहरण को लेकर भी दो मत दिये हैं। जो लोग लिंगज्ञान को अनुमिति का करण मानते हैं उनके मत में धूम का अर्थ है-धमज्ञान । इसलिए व्याप्तिविशिष्ट लिंग के ज्ञान का
१. 'हेतुरिह कारणं, न शास्त्रीयः । तस्य कर्तसंज्ञाया अपि सत्त्वेन कर्ततृतीययैव सिद्धेः।
-ल० श० शे०, पृ० ४३७ २. 'समवायिकारणत्वं ज्ञेयमथाप्यसमवायिहेतुत्वम्'। --भाषापरि०, १७
३. 'व्याप्यस्य पक्षवृत्तित्वधीः परामर्श उच्यते' । व्याप्य अर्थात् अन्वयव्याप्ति का साधन ( हेतु-धूम ) पक्ष में वर्तमान है, ऐसा बोध होना परामर्श है।
-वहीं, कारिका ६८ ४. 'हेतुरपदेशो लिङग प्रमाणं करणमित्यनर्थान्तरम्'। -वै० सू. ९।२।४