________________
२१० संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन कर्ता में करणत्व का व्यवहार होता है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वास्तव में आत्मा करण हो जायगी।
व्युत्पत्तिवाद में कर्तव्यापार की अधीनता फिर भी कुछ लोग कर्ता में करणत्व का व्यवहार सहने में अक्षम हैं । भवानन्द उन्हें भी अपनी पंक्ति में लाने के लिए करण-लक्षण में 'कर्तृभिन्नत्वे सति' यह विशेषण लगाने का भी आग्रह करते हैं । व्यापारयुक्त कारण तो करण ही हो सकता है, किन्तु विवक्षा से कर्ता को भी करण मानने की स्थिति में वह लक्षण अशक्तप्राय हो जाता है; अत: 'कर्ता से भिन्न' विशेषण को श्रयमाण होना आवश्यक है, जिससे कर्ता का वारण करके विशुद्ध करण का लक्षण सम्पन्न हो सके । गदाधर ऐसी ही विषम स्थिति से बचने के लिए 'कर्तव्यापाराधीनत्वे सति व्यापारवत्त्वं करणत्वम्' ऐसा लक्षण करते हैं । उन्हीं के शब्दों में- यदि ऐसा नहीं किया जाय तो कर्ता को भी करण होने लग जाय तथा 'चैत्रश्चैत्रेण पचति' 'काष्ठं चैत्रेण पचति' इत्यादि अनिष्ट प्रयोग दुर्वार हो जायेंगे जहाँ कर्ता करण बन गया है। यह शंका फिर भी रह ही जाती है कि चेष्टादि के रूप में कर्ता का व्यापार भी तो उसकी कृति ( यत्न ) आदि के रूप में दूसरे व्यापार के ही अधीन है, अतः कर्ता के व्यापार के अधीन रहने पर भी कर्ता सर्वथा करण नहीं होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मान लिया कि चेष्टा के रूप में कर्तव्यापार के अधीन करण का व्यापार चल रहा है, क्रिया की निष्पत्ति कर रहा है । अब चेष्टारूप कर्तृव्यापार भी कृतिरूप कर्तृव्यापार के अधीन है, अतः पूर्व व्यापार को ( जो कर्ता का है ) करणव्यापार के रूप में भी देखा जा सकता है । इसका समाधान यह है कि कर्तव्यापार को जो हम विशेषणरूप देते हैं वह करण से भिन्न मानकर ही । इस प्रकार अपने से भिन्नरूप कर्ता के व्यापार के अधीन व्यापार से युक्त कारण का नाम करण है-यह लक्षण निकला। ____वास्तव में गदाधर कर्तृव्यापार की अधीनता सर्वत्र नहीं स्वीकार करते, क्योंकि उनके अनुसार करणतृतीया की दो पृथक् शक्तियाँ हैं-(१) समभिव्याहृत ( एक साथ प्रयुक्त ) कर्तृव्यापार की अधीनता तथा ( २ ) व्यापारयुक्त कारण होना। प्रथम शक्ति की व्याख्या अपेक्षित है। जहाँ एक ही पाकक्रिया को चैत्र काष्ठ से और
( ख ) "ज्ञानादावात्मादेः करणत्वस्येष्टत्वात् । उपाधेयसङ्करेऽपि कर्तृत्वकरणत्वाद्युपाधेरसाङ्कर्यादेव कारकस्य षडविधत्वादत एव 'आत्मानमात्मना वेत्सि सृजस्यात्मानमात्मना' इत्यादिकः प्रयोग:"। -श० श० प्र०, पृ० ३१३, कारिका ७१ १. 'तच्च व्यापारवत्कारणत्वम् । व्यापारे कर्तृव्यापाराधीनत्वं निवेशनीयम्' ।
-व्यु० वा०, पृ० २२४ २. 'स्वभिन्नत्वेन कर्तुविशेषणीयत्वात्' ।
-वहीं ३. 'वस्तुतः समभिव्याहृतकर्तृव्यापाराधीनत्वे व्यापारवत्कारणत्वे च तृतीयायाः शक्तिद्वयम्'।
-वहीं, पृ० २२५