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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
इत्यादि कर्मों के असिद्ध होने पर उन पर व्यापारित होने वाले दात्रादि करणों के व्यापार भी असिद्ध ही रहते हैं । जब छेद्य पदार्थ ही नहीं है तब कुठारादि करण छिदानुकूल व्यापार किस पर करेंगे ? यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों ने कर्म को 'करण के व्यापार का विषय ' माना है, जिसका विवेचन पिछले अध्याय में हो चुका है । इस प्रकार कर्म करण में चरितार्थ है ' ।
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( ३ ) अधिकरण-कारक कर्ता या कर्म के व्यापार के द्वारा क्रिया का निष्पादक होता है अर्थात् वह इन दोनों में से किसी एक में चरितार्थ होता है; जैसे— 'गृहे चैत्रः स्थाल्यां तण्डुलं पचति' । इस वाक्य में गृह तथा स्थाली वे दो अधिकरण है । गृह का कारकत्व ( क्रियानिष्पादकत्व ) चैत्र ( कर्ता ) के व्यापार-सम्पादन के द्वारा सम्भव होता है और जब तण्डुल ( कर्म ) अपने व्यापार का सम्पादन करता है तब स्थाली क्रियानिष्पादक बनती है । गृह के साथ चैत्र का संयोग हुए बिना या स्थाली के साथ तण्डुलसंयोग हुए बिना पाक-क्रिया सम्भव नहीं होती ।
( ४ - ५ ) सम्प्रदान और अपादान क्रियासामान्य के प्रयोजक नहीं होते, २ तथापि वे प्रकारान्तर से चरितार्थ होते हैं । सम्प्रदान दान-क्रिया में अपनी अनुमति का प्रकाशन करके कर्ता की इच्छा उत्पन्न करता है और इसी से उपर्युक्त क्रिया में निमित्त बनता है । इस प्रकार दारूप क्रिया - विशेष में सम्प्रदान की निष्पादकता स्थित होती है, सभी क्रियाओं में नहीं । अतएव क्रियासामान्य से सम्बद्ध करण का स्थान सम्प्रदान नहीं ले सकता । दान-क्रिया में भी अनुमति - प्रकाशन के द्वारा जहाँ दान- प्रयोजकता नहीं प्रतीत हो ( जैसे - हस्तेन ददाति ) वहाँ सम्प्रदान नहीं होता, प्रत्युत उपयुक्त परिस्थितियाँ मिल जाने से करण होता है । अपादान कारक भी पतन के आश्रय पत्रादि में पतन
रोकने वाले ( विरोधी ) संयोग के विनाशक विभाग को उत्पन्न करके चरितार्थं हा है, पतन-क्रिया का निमित्त बनता है । इसलिए वह करण का प्रतिद्वन्द्वी नहीं है । जहाँ अपादान उपर्युक्त प्रकार से पतन का प्रयोजक नहीं होता, वहाँ उसका वारण होता है । इस प्रकार अन्य किसी कारक में करण चरितार्थ नहीं होता । दूसरे कारक जब क्रिया की निष्पत्ति में असफल हो जाते हैं तब करण का व्यापार ही उसे निष्पन्न करता है । इसी दृष्टिकोण से करण को अन्तिम या प्रकृष्ट कारण के रूप में नैयायिक स्वीकार करते हैं ।
१. 'कर्मापि करणे चरितार्थम् । कर्मासिद्धी करणव्यापार ( 1 ) सिद्धेः । न हि छेद्यासिद्धी कुठारादिकरणानां छिदानुकूलव्यापारः सम्भवति । अत एव करणव्यापारविषयत्वं कर्मत्वमिति प्राञ्चः' । 'कर्मणस्तु तादृशक्रिया हेतुत्वविरहादेव नातिप्रसङ्गः' - वहीं कारकवादार्थः, पृ० ३१ २. ‘सम्प्रदानापादानयोश्च न क्रियासामान्यहेतुत्वम्' । - का० च०, पृ० ४१ ३. 'दानेऽनुमतिप्रकाशनेन कर्तुरिच्छामुत्पाद्य सम्प्रदानस्य पतनाश्रये च पत्रादौ पतनप्रतिबन्धक - संयोगनाशक - विभागमुत्पाद्य अपादानस्य चरितार्थत्वम्' । वहीं