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करण-कारक
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इसी प्रकार करण में भी भेदाभेद-विवक्षा होती है । अनभिहित करण तो तृतीया विभक्ति लेता है किन्तु अभिहित होने पर प्रथमा में ही रहता है। हेलाराज पुनः विवक्षा का आश्रय लेकर प्रधान करण के विषय में कहते हैं कि ल्युट या घन के द्वारा इसका अभिधान होता है; जैसे-पचनमेधः ( वह लकड़ी जो पाक का प्रकृष्टोपकारक है ), पचनं, तेजः, पचनी स्थाली, पचनमौष्ण्यम् ।
___नव्यन्याय में करण-विवेचन : भवानन्द भवानन्द के अनुसार करण वह ( क्रिया ) हेतु है जो दूसरे कारकों में चरितार्थ नहीं होता अर्थात् दूसरे कारकों के व्यापार जब क्रिया के हेतु या जनक नहीं बनते हैं तब जिसके व्यापार से क्रिया उत्पन्न होती है, वही करण है । इससे करण का पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध होता है कि इसका व्यापार किसी भी दूसरे कारक में गतार्थ नहीं हो सकता, वे करण का स्थान नहीं ले सकते । जयराम भी भवानन्द के लक्षण की आवृत्ति करते हुए केवल अस्पष्ट 'हेतुत्वम्' को 'क्रियाहेतुत्वम्' कर देते हैं। वैसे कारकों के सन्दर्भ में क्रिया-हेतुत्व के रूप में सामान्य तथ्य अश्रुत रहने पर भी गम्यमान होता ही है । किन्तु यहाँ भवानन्द यह विशेष तथ्य रखते हैं कि हेतु क्रिया का नहीं, प्रत्युत क्रियाफल का है । फल भी तो क्रिया का अन्यतर अर्थ है ।
__ अब हम यह भी देखें कि भवानन्द किस प्रकार अपने करण-लक्षण में प्रयुक्त 'कारकान्तर में गतार्थ नहीं होता' इस विशेषण की संगति दिखलाने के लिए विभिन्न कारकों के समक्ष करण का व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं
(१) कर्ता-कारक पहले से क्रियाजनक के रूप में प्रसिद्ध कुठारादि में अवस्थित संयोगादि व्यापार उत्पन्न करता है और इसीलिए करण के व्यापार के द्वारा ही छिदा ( कट जाना ) के रूप में फल का उत्पादक या हेत बनता है। अतएव कर्ता का साक्षात्सम्बन्ध करण से होता है; फल का हेतु तो वह परम्परया बनता है अर्थात् उसके और फल के बीच करण व्यापार चला आता है। दूसरे शब्दों में-कर्ता करण के प्रति अपने प्रयोजन को व्यक्त करता है और करण उसके प्रयोजन को फल तक पहुँचा कर ही विश्राम करता है ।
(२) कर्म-कारक के साथ भी यही बात है। वह भी अपना उद्देश्य करण के समक्ष ही उपस्थित करता है, क्योंकि धान्य ( धान्यं लुनाति ), काष्ठ (काष्ठं छिनत्ति)
१. 'करणत्वं च कारकान्तरेऽचरितार्थत्वे सति हेतुत्वम् । तत्र चरितार्थत्वं च तद्व्यापारमुत्पाद्येव फलहेतुत्वम् ।।
--भवानन्द, कारकचक्र, पृ० ४० २. जयराम, कारकवाद, पृ० ३० ।
३. 'कर्ता हि सिद्धं कुठारादिकं व्यापारयन् छिदालक्षणं फलमुत्पादयतीति करणे चरितार्थः, न तु फले'।
-का० च०, पृ० ४० 'फले=छिदादिक्रियायामहेतुरिति शेषः ।
-माधवी, पृ० ४१