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करण-कारक
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से प्रत्यावर्तन इत्यादि लौकिक दृष्टान्त ही इसके उपोबलक हैं । अभिज्ञानशाकुन्तल में विदूषक का मौन योगदान नाटक की लक्ष्यत्ति में उपकारक होता है । आगमन तर्कशास्त्र ( Inductive Logic ) में भावात्मक तथा अभावात्मक दोनों प्रकार के घटनाक्रमों या प्रयोजकों ( Conditions ) के समुदाय को 'कारण' कहा जाता है। अतः क्रिया का उपकार असत् पदार्थ से नहीं होता, यह कहना गलत है । यही बात भर्तृहरि भी कहते हैं
'यथा च सन्निधानेन करणत्वं प्रतीयते ।
तथैवासन्निधानेऽपि क्रियासिद्धेः प्रतीयते' ॥ -वा० प० १।७।९८ अर्थात् जैसे दात्रादि पदार्थ सन्निहित रहते हुए क्रिया के उपकार में अतिशय पाकर करण के रूप में जाने जाते हैं, वैसे ही 'धनाभावेन मुक्तः' इत्यादि वाक्यों में धन असन्निहित ( दूर, अभावात्मक ) रहकर भी मुक्ति की सिद्धि करने के कारण करणरूप में प्रसिद्ध है : हेलाराज, पृ० ३१० ) । इसके समर्थन में पाणिनि के सूत्र 'करणे च स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्यासत्त्ववचनस्य' ( २।३।३३ ) की ध्वनि भी सहायक होती है । इस सूत्र में माना गया है कि स्तोक, अल्प इत्यादि शब्द, जो अन्यथा सत्त्ववाचक हैं, असत्त्ववाचक के रूप में आ सकते हैं; जब इनके धर्ममात्र को अभिहित करने के तात्पर्य से प्रयोग किया जाय और इनसे द्रव्य ( सत्त्व ) का बोध नहीं हो'। इसके उदाहरण में 'स्तोकान्मुक्तः' (पंचमी ) तथा 'स्तोकेन मुक्तः' ( करण-तृतीया )-ये दिये गये हैं। पिछले वाक्य में यह स्पष्ट किया गया है कि स्तोक से लक्षित होनेवाला धर्म मात्र सत् हो या असत्, मुक्तिक्रिया में अतिशय उपकारक होने से करण है । दातव्य पदार्थ ( रुपया, अन्नादि ) में से थोड़ा ही निष्पन्न हो सका, अधिक देना सम्भव ही नहीं; क्योंकि दाता के पास अब धन नहीं है। अतः उतने से ही मुक्त हुआ है। यहां करणभूत 'स्तोक' की सत्ता है। पुनः यदि दातव्य वस्तु में थोड़ा ही देना अवशिष्ट रहे, शेष पूरा कर दिया गया हो तो उस दत्त धन से ही मुक्त ( उऋण ) समझना चाहिए । यहाँ भी स्तोक की सत्ता ही है । दूसरी ओर, यदि बहुत-सा भाग देना हो, मुक्त होने में कठिनाई हो तो असत् स्तोक ( स्तोकाभाव ) से मुक्ति-क्रिया की निष्पत्ति माननी होगी। इसी प्रकार 'एकेन न विशतिः, एकान्न विशतिः' में एकाभाव को विंशति-निषेध का करण समझना चाहिए। अतएव इस विवेचन से प्रकट होता है कि असत् पदार्थ भी करण हो सकता है।
१. 'यदा तु धर्ममात्रं करणतया विवक्ष्यते न द्रव्यं, तदा स्तोकादीनामसत्त्ववचनता'।
--काशिका २।३।३३ २. 'स्तोकस्य वाभिनिर्वृत्तेरनिवृत्तेश्च तस्य वा । प्रसिद्धिं करणत्वस्य स्तोकादीनां प्रचक्षते' ।
-वा०प०३७.९९ ३. 'यदि तु बहु देयं स्यात्, न मुच्येतेति स्तोकेनाभवता मुक्तः'।
-हेलाराज , ३.११ १५.