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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
में साधकतमत्व की प्राप्ति होती है। निष्कर्षतः बाधित होने के लिए भी मूल रूप में सत्ता अनिवार्य है। यहां भी मूलतः साधकतम रहने पर ही स्वातंत्र्य की प्राप्ति विवक्षा से हो सकती है । अन्ततः हम पाते हैं कि करण क्रिया के प्रति प्रकृष्ट सहायक होता है।
विद्यमान करण द्वारा क्रियोपकार कुछ लोगों की यह मान्यता है कि प्रकृत स्थल में जो करण के द्वारा उपकार किये जाने की बार-बार चर्चा हो रही है वह विद्यमान या सत्ताधारी करण के ही द्वारा सम्भव है, अविद्यमान करण के द्वारा नहीं। पुरुषोत्तमदेव अपने कारकचक्र (पृ० १०८ ) में ऐसी ही बात कहते हैं। प्रश्न है कि विवक्षा सत् पदार्थ की होती है या असत् की ? सत पदार्थ की विवक्षा होने पर अतिशय की सत्ता सिद्ध करना सम्भव है । दूसरी ओर, असत् पदार्थ की विवक्षा होने पर शब्द का अपने अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा, अतिशय का प्रदर्शन भी नहीं हो सकेगा। इसका यह समाधान दिया जा सकता है कि असत् के स्थलों में विवक्षा से अतिशय-सिद्धि हो जा सकती है, किन्तु यह समाधान पुरुषोत्तम के अनुसार विवक्षा की प्रकृति को ठीकठीक नहीं समझनेवाले ही दे सकते हैं। यदि ऐसा होने लगे तो वन्ध्यापुत्र के साथ भी विवक्षा से सम्बन्ध होने लग जाय । विवक्षा वक्ता की इच्छा का द्योतक है और पुरुष की इच्छा पदार्थ पर निर्भर करती है, न कि पुरुष की इच्छा पर पदार्थ चलता है । पदार्थविषयक इच्छा ज्ञात के विषय में ही होती है, अतः ज्ञातव्य पदार्थ को अवश्य ही इच्छा का पूर्ववर्ती होना चाहिए, तभी उसके विषय में इच्छा होगी। अतएव असत् पदार्थ के अतिशय की विवक्षा असंगत है । क्रियासिद्धि के अव्यवहित पूर्व में करण के विद्यमान रहने से ही लक्ष्यप्राति होती है; असत् रहने पर वह उपकारक नहीं होगा, अतिशय होना तो दूर की बात है।
असत् पदार्थ का करणत्व किन्तु पाणिनि-तन्त्र में सामान्यतया इस मत को प्रश्रय नहीं मिलता। यहाँ यह मान्यता है कि जिस प्रकार सत् पदार्थ प्रकृष्टोपकारक है उसी प्रकार असत् भी है। विवक्षा की बात जाने भी दें तो लौकिक दृष्टि से भी अभावात्मक पदार्थ का योगदान क्रियासिद्धि में देखा जाता है । धनाभाव से मरण, ज्ञानाभाव से पराजय, सहायकाभाव १. 'इच्छा च पुरुषस्य पदार्थानुरोधिनी, न पुरुषस्येच्छानुरोधी पदार्थः' ।
-पुरुषोत्तम : कारकचक्रम्, पृ० १०८ २. 'पदार्थेच्छा च ज्ञातविषया, तदवश्यं प्राग्ज्ञानविषयो वाच्यो यत्रेच्छया भवितव्यम् । तस्मादसतोऽतिशयस्य न विवक्षा । तदुक्तम्
उत्कृष्टं नैव करणमन्यस्तुल्यत्वदर्शनात् । कथमिच्छामभावस्य को हि कुर्यादबालिशः' ।
-पुरुषोत्तम : कारकचक्रम्, पृ० १०८