________________
२०२
संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
करण बन जाते हैं। पुनः यदि तीक्ष्णतादि की ही स्वतंत्ररूप में विवक्षा की जाय तो वही ( तीक्ष्णतादि ) दो भागों में बँटकर कर्ता तथा करण दोनों रूपों में व्यवस्थित होते हैं । तो यह अर्थ हुआ कि करण जब कर्ता के रूप में विवक्षा द्वारा प्रयुक्त होता है तब अपना स्थानापन्न कुछ-न-कुछ छोड़ जाता है, जिसका प्रकर्ष यथापूर्व बना ही रहता है। करण-कारक का परिवर्तन कर्ता में यों ही नहीं हो जाता, कर्ता बनने की पूरी क्षमता प्राप्त करके ही यह रूपान्तरित होता है । छेदन-क्रिया के प्रति बहुत तेज धार होने के कारण असि ( तलवार ) इस तथ्य का तिरस्कार कर देता है कि उसका विनियोग कर्ता ने किया है । फलतः स्वतंत्र रूप में उसकी विवक्षा होती है तथा अब वह करण नहीं रहा । तब करण कौन है ? जिसके व्यापार के अनन्तर क्रिया होती है उसे ही करण-पद प्राप्त होगा। असि के कर्तृत्व की स्थिति में तैक्ष्ण्य ( तेज धार ), गौरव ( भार ), काठिन्य ( कठोरता ), संस्थान ( स्थापित होना ) इत्यादि करण होंगे। हम प्रयोग कर सकते हैं - 'असिः तैक्ष्ण्येन गौरवेण काठिन्येन संस्थानेन वा छिनत्ति'।
यदि संयोगवश इन्हें भी कर्ता मानने की इच्छा हुई तब लौकिक कठिनाई भले ही हो, शास्त्रीय संगति तो बैठ ही जायगी। व्याकरणशास्त्र में शब्दस्वरूप अर्थ की उपाधि है, अतः शब्द में भेद होने से अर्थ में भी औपाधिक भेद हो जाता है; यथा'आत्मानमात्मना हन्ति'' । यहाँ भी इसी विधि से तैक्ष्ण्य में शब्दभेद की कल्पना करके कर्ता और करण के रूप में उसे प्रतिपन्न किया जा सकता है। स्वाधीन रूप में आश्रित आत्मा कर्ता है तथा साधकतम के रूप में आश्रित होने पर वही करण हैइस प्रकार आत्मा ही दो रूपों में व्यवस्थित होती है ( आत्मा द्वेधा व्यवतिष्ठते )। प्रयोग भी होगा- 'तक्ष्ण्यं छिनत्ति स्वसामर्थ्येन ( तैक्ष्ण्येन )'। यह विधान इसलिए किया गया है कि क्रिया का करण के साथ व्याप्ति-संबन्ध है, अतः तीक्ष्णता ही छेदनक्रिया के साधकतम के रूप में वर्तमान रहने से करण बना रहे, कोई दूसरा करण नहीं चला आये । अतः कर्ता और करण भिन्न रूप में हैं, इन्हें एकजातीय समझना भ्रम है।
पाणिनि के 'आकडारादेका संज्ञा' ( १।४।१ ) सूत्र पर अनेक वार्तिक हैं, जिनमें कात्यायन यह दिखाते हैं कि अमुक संज्ञा अमुक संज्ञा को बाधित करती है। इन्हीं में एक वार्तिक है-'करणं पराणि' अर्थात् करण संज्ञा को दूसरी कारक-संज्ञाएँ बाधित करती हैं । इसके उदाहरण हैं-धनुर्विध्यति ( धनुष से निकलने वाले बाण वेध-क्रिया के प्रति करण हैं और धनुष कर्ता हो गया है ), असिश्छिनत्ति । तात्पर्य यह है कि अपने ही व्यापार में अपने-आप की भी करणत्व-विवक्षा कभी-कभी असम्भव रहती है।
१. द्रष्टव्य (प० ल० म०, पृ० १८४ )- 'एकस्यैव शब्दभेदाद् भेदः । शब्दालिङ्गितस्यैव सर्वत्र भानात्' ।
२. 'क्रियायाः कारणाविनाभावात् करणान्तरव्यावृत्तिपरेयं चोदना । तैक्ष्ण्यमेव छिदौ साधकतमं नान्यदिति तस्यातिशयपरिपोषे तात्पर्यम्' । हेलाराज ३, पृ० ३०९