________________
२१३
व्यापार होता है; पुनः यहाँ परामर्श व्याप्तिविशिष्ट लिंग का पक्ष के साथ वैशिष्ट्य ( पक्षधर्मता ) से सम्बद्ध ज्ञान है, जो अनुमाता पुरुष के व्यापार के अधीन है । अतएव धूम करण है । किन्तु उनका पक्ष दूसरे मत से मिलता है । तदनुसार लिंग-ज्ञान के करण होने पर भी धूम-पद से धूमज्ञान का बोध नहीं होता, अपितु वह अपने शक्यार्थ में ही रहता है, अतः धूम करण नहीं, हेतु ही है और 'हेतो' सूत्र से उसमें तृतीया होती है ।
करण तथा हेतु'
पाणिनि ने जहाँ करण और हेतु के भेद का संकेतमात्र किया वहीं उनके सम्प्रदाय में इसकी पूर्ण मीमांसा की गयी तथा पाणिनि-प्रयुक्त हेतु को कारण पर्याय मानकर भी अनुमान गत हेतु से पृथक् तो किया ही गया, करण से भी इसका स्पष्ट भेदनिरूपण हुआ । इसमें फल-साधन के योग्य पदार्थ को हेतु कहते हैं ( न्यायकोश, पृ० १०७१ ) । जैसे - धनेन कुशलम्, विद्यया यशः आदि । यहाँ कुशलता और यशोलाभ फल के रूप में निर्दिष्ट हैं, जिनकी सिद्धि के योग्य पदार्थ क्रमशः धन और विद्या हैं; अतः ये हेतु हैं । इन्हें कारण भी कह सकते हैं, क्योंकि कारण के समान ये फलों के उत्पादक भी हैं । स्मरणीय है कि अनुमान में आनेवाला हेतु उत्पादक नहीं, ज्ञापक होता है । सामान्य रूप से कारण के नाम से प्रचलित तत्त्व ही पाणिनि का हेतु है, किन्तु इसमें मुख्यतया निमित्त कारण का ही समावेश है, समवायी और असमवायी का नहीं; यद्यपि इनके निषेध का कोई प्रश्न नहीं उठता ।
करण-कारक
अपनी योग्यता अनुसार हेतु में
हेलाराज के
ज्ञात स्रोतों में वाक्यपदीय में ही सर्वप्रथम करण और हेतु की विभाजक रेखा खींची गयी है । भर्तृहरि उसमें पहली बात बतलाते हैं कि हेतु में व्यापार का आश्रय नहीं लिया जाता, जब कि करण कारक सव्यापार होता है । विवक्षित वस्तु या प्रयोजन की सिद्धि के लिए व्यापार का आश्रय लिये बिना ही केवल से निमित्त के रूप में जो आश्रित हो, वही हेतु है । तृतीया शेषलक्षणा षष्ठी या सम्बन्ध षष्ठी के स्थान में होती है; जैसे – अध्ययनेन वसति । अध्ययन हेतु तथा वास हेतुमान् है । इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध के कारण शेष षष्ठी प्राप्त थी, जिसे रोककर हेतु तृतीया हुई है । यहाँ क्रिया का निमित्त हेतु है, किन्तु इसमें व्यापार का लेश नहीं । भट्टोजिदीक्षित इसकी व्याख्या में कहते हैं कि हेतु के अन्तर्गत फल को भी ले लिया जाता है । 'अध्ययन के लिए निवास' में पहले निवास होता है, तब अध्ययन । फलतः अनुवर्ती होने के कारण नियमतः अध्ययन को हेतु नहीं कह सकते, क्योंकि हेतु का अर्थ यदि कारण है तो उसे चाहिए। दूसरी ओर अध्ययन करण भी नहीं है, क्योंकि निवास
कार्य के पूर्व रहना की सिद्धि में इसकी म० हरिकृपालुद्विवेदी स्मारक -ग्रन्थ में हेतुकरणविवेकः
१. द्रष्टव्य-म०
( मेरा निबन्ध ) । २. 'अनाश्रिते
तु
व्यापारे निमित्तं हेतुरिष्यते' |
--
- वा० प० ३।७।२४ पू०