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करण-कारक
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गुण ,,
साधन में समर्थ है। दूसरी ओर करण-कारक केवल क्रिया की सिद्धि में समर्थ है ( 'द्रव्यादिविषयो हेतुः कारकं नियतक्रियम्'-वा०प० ३।७।२५ पू० ) । फलस्वरूप द्रव्य और गुण के साधक में करण की प्राप्ति कभी नहीं होती। करण केवल क्रिया में व्यापार का प्रदर्शन करता है। इसमें भी निर्व्यापार होने से उसे हेतु ही कहते हैं । द्रव्य और गुण की स्थिति में चूंकि करण का कोई योगदान नहीं रहता अतएव उनके साधन में हेतु व्यापार करे या नहीं-कोई अन्तर नहीं पड़ता; दोनों प्रकार से हेतु ही रहता है । करण और हेतु के भेद-विवेचन का यह फलितार्थ है१. निर्व्यापार या सव्यापार रहकर द्रव्य का जनक ।
हेतु है।
, क्रिया , ४. -- सव्यापार , क्रिया ,, } करण है। हेतु के कुछ उदाहरण इसे स्पष्ट कर सकेंगे
(१) द्रव्यविषयक हेतु-दण्डेन घटः । यहाँ दण्ड में व्यापार है, किन्तु उसका साक्षात् क्रिया से अन्वय नहीं होने से वह करण नहीं है । दण्ड घट के जनक के रूप में आया हुआ है । यहाँ हेतु सव्यापार है। दूसरी ओर 'धनेन कुलम्' इस उदाहरण में धन का कोई व्यापार नहीं। व्यापार हो भी तो उससे पृथक् रहकर ही धन अपनी योग्यता-मात्र से कुल का हेतु है-ऐसा आशय है ।
(२) गुणविषयक हेतु-पुण्येन गौरवर्णः । पुण्य के दो अर्थ हैं-परम अपूर्व ( अदृष्ट ) तथा यज्ञादि धार्मिक क्रियाकलाप । पहला निर्व्यापार होता है, दूसरा सव्यापार । दोनों ही स्थितियों में यह हेतु ही रहता है, क्योंकि क्रिया से इसका साक्षात् अन्वय नहीं है । इसी प्रकार हेलाराज 'शिल्पाभ्यासेन नैपुण्यम्' यह उदाहरण देते हैं, जिसमें नैपुण्य-गुण का जनक सव्यापार शिल्पाभ्यास विवक्षित है।
(३ ) क्रियाविषयक हेतु-पुण्येन दृष्टो हरिः । यहाँ 'पुण्य' का अर्थ परमापूर्व ( अदृष्ट ) है, जिसमें कोई व्यापार नहीं होता। अतएव दर्शन-क्रिया से अन्वय ( दर्शनका हेतु ) होने पर निर्व्यापार होने के कारण पुण्य हेतु है तथा उसमें हेतु-तृतीया हुई है । यदि हम पुण्य का अर्थ उक्त धार्मिक क्रिया-कलाप ( यज्ञ-यागादि ) लें तो पुण्य हेतु नहीं रहेगा, क्योंकि दर्शन-क्रिया से अन्वय होने से और सव्यापार होने से इसमें कारकत्व की आपत्ति होगी अर्थात् वह करण कहलायेगा और तृतीया की उत्पत्ति 'हेतो' ( २।३।२३ ) से नहीं, 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' ( २।३।१८ ) से होगी। हेलाराज क्रियाविषयक हेतु का उदाहरण 'अग्निना पाकः' देते हैं कि सव्यापार होने पर भी १. 'दण्डे व्यापारसत्त्वेऽपि क्रियाजनकत्वाभावान्न करणत्वम् ।
-ल० श० शे०, पृ० ४३८ . २. 'कुलस्य हि धनेन प्रसिद्धिरुपजन्यते । तत्र चोपरतव्यापार धनं, योग्यतामात्रात्कुलस्य हेतुरिति' ।
-हेला० ३, पृ० २५५