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कर्म-कारक
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'दीव्यन्तेऽक्षाः' ( पासे खेले जाते हैं--कर्मवाच्य ) में कर्मसंज्ञा- इस प्रकार दोनों का पृथक अवकाश भी शब्दकौस्तुभ ( खं०२, पृ० १२७ ) में दिखलाया गया है ।
(ग) अधिशीस्थासां कर्म ( १।४।४६ )-क्रियाश्रय-भूत कर्ता और कर्म के आधार को अधिकरण-संज्ञा होती है, जिसका बाध करके प्रस्तुत सूत्र अधिपूर्वक शी, स्था और आस् धातुओं के प्रयोग में उनके आधार को कर्मसंज्ञा का विधान करता है। जैसे -'अधिशेते अधितिष्ठति अध्यास्ते वा वैकुण्ठं हरिः । वैकुण्ठ वास्तव में उन क्रियाओं का आधार है, किन्तु अधिकरण के स्थान में कर्मसंज्ञा ही होती है। यहां भी कर्मप्रवचनीय के पूर्वप्रयोग से विकसित कर्मसंज्ञा की प्रतीति होती है ।
(घ ) मभिनिविशश्च (१।४।४७ )- अभि तथा नि ( संयुक्त ) के बाद विश्-धातु का प्रयोग हो तो इसके अधिकरण को कर्मसंज्ञा होती है; जैसे--- ग्राममभिनिविशते ( ग्राम के प्रति आग्रहवान् है )। अभिनिवेश = आग्रह । यह अकर्मक क्रिया है, इसी से अधिकरण के स्थान में कर्मसंज्ञा का विधान है । प्रवेश करने के अर्थ में तो 'ग्रामं गच्छति' के समान कर्मसंज्ञा अपने-आप सिद्ध है; जैसे--- 'धर्मारण्यं प्रविशति' ( अभि० शकु० १।३० ), 'निविशेस्तं नगेन्द्रम्' ( मेघ० १।६५ ), 'ग्राममभिनिविशते' ( गांव में प्रवेश करता है )। ये सभी प्राप्य कर्म हैं । आग्रह के अर्थ में भी कर्म संज्ञा का वैकल्पिक प्रयोग देखा जाता है; जैसे-'पापेऽभिनिवेशः; एष्वर्थेष्वभिनिविष्टानाम्' । ( भाष्य २।१।१)। इन प्रयोगों का समर्थन, 'परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम्' ( पा० १।४।४४ ) से मण्डूकप्लुति-न्याय से 'अन्यतरस्याम्' की अनुवृत्ति लाकर किया जा सकता है । शब्दकौस्तुभकार यहाँ 'नि' उपसर्ग में 'अभि' की अपेक्षा अल्पतर स्वरवर्ण रहने पर भी उसके परनिपात का कारण बतलाते हैं कि इसी आनुपूर्वी से विशिष्ट समुदाय की विवक्षा की जा सके, व्यत्यय या अकेले उपसर्ग के योग में नहीं हों-यही सूत्रकार का उद्देश्य है । इसी से 'निविशते यदि शूकशिखा पदे' ( नैषधीय. ४।११ ) में कर्मसंज्ञा नहीं हुई। हां, यह स्मरणीय है कि कर्मत्व की विवक्षा होने पर द्वितीया होगी ही।
(5) उपान्वध्यावसः (१।४।४८)- उप, अनु, अधि तथा आङ इनमें से किसी भी उपसर्ग के बाद यदि वस्-धातु का प्रयोग हो तो उसके आधार को कर्मसंज्ञा होती है; जैसे-उपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति वा ग्राम सेना। इन सभी क्रियाओं का अर्थ 'निवास करना' है। भोजन-निवृत्ति के अर्थ में उपपूर्वक वस्-धातु के आधार को कर्म नहीं होता, अधिकरण ही रहता है। जैसे-'वने उपवसति' । इसका विशेष विवेचन अधिकरण के प्रसंग में होगा। ये सभी उपसर्ग पहले कर्मप्रवचनीय के रूप में प्रयुक्त होकर द्वितीया-विभक्ति लेते होंगे। बाद में कर्मसंज्ञा की श्रेणी में इन्हें लाने का प्रयास किया गया है-ऐसा अनुमान है।