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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
साधकत्व अनधिगत अर्थ का गमक होने के कारण विधेय हो सकता था' । यदि सभी कारक साधक ही हैं और तब कहें कि करण साधक है, तो इस विधि का विधित्व या प्रामाण्य सुरक्षित रखने के लिए अतिशयता का अर्थ अपने-आप आ जायगा और 'साधकतम' का बोध होगा । अतः तमप् का शब्दशः प्रयोग व्यर्थ है।
जब ऐसी बात है तब यह कहा जा सकता है कि आचार्य पाणिनि तमप-प्रत्यय का प्रयोग करके इस तथ्य का ज्ञापन करना चाहते हैं कि कारक-संज्ञा में उपर्युक्त प्रकार से तर-तम प्रत्ययों का योग नहीं हआ करता ( 'कारक-संज्ञायां तरतमयोगो न भवति'- भाष्य )। इसका अर्थ हुआ कि कारकों के लक्षण में बिना तमप्-प्रत्यय का प्रयोग किये ही प्रकर्ष का बोध होता है-'तमप्' नहीं देने से प्रकर्ष तथा सामान्य दोनों का बोध होता है। उदाहरणार्थ अपादान के अपाय-रूप लक्षणों में 'तमप्' का प्रयोग नहीं है, जिससे 'ग्रामादागच्छति' ( जहाँ सम्प्राप्यनिवृत्ति के रूप में वास्तविक अपादान है ) के समान 'साङ्काश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः' ( जहाँ बुद्धिगत अपादान है ) की सिद्धि भी हो सकती है। यदि 'अपायतम' का प्रयोग होता तो केवल वास्तविक अपादान ही इसके अधिकार में आ सकता था, बौद्धिक अपादान नहीं। सभी प्रकार के अपायों को अपादान में अन्तर्भूत करने के लिए तमप-प्रत्यय का अप्रयोग है। इसी प्रकार अधिकरण के लक्षण में यदि तमप् लग जाता ( 'आधारतमोऽधिकरणम्' ) तो जहाँ सम्पूर्ण आधार व्याप्त होता केवल उसी स्थान में ( वास्तविक आधार में ) अधिकरण होता; जैसे--तिलेषु तैलम् । दनि सर्पिः ( दही में घी है )। यहाँ सभी अवयवों से अवयवी व्याप्त हो रहा है । दूसरी ओर, 'गङ्गायां गावः' ( गंगा के तट पर गायें हैं ), 'कूपे गर्गकुलम् ( कुएँ के समीप गर्ग के परिवार का घर है )-ऐसे सामीप्यादि पर आश्रित, प्रकल्पित आधार के स्थलों में अधिकरण नहीं होता। कारण यह है कि गौ के द्वारा गंगा या गर्गकुल के द्वारा कूप व्याप्त नहीं होते हैं। किन्तु पाणिनि ने तो 'तमप्' का प्रयोग किया नहीं। इससे सभी प्रकार के आधारों को अधिकरण में अन्तर्भूत कर लेना उनका उद्देश्य रहा होगा। __ कारक-प्रकरण में 'तमप्' का प्रयोग केवल दो स्थानों पर हुआ है-'साधकतमं करणम्' (१।४।४२) तथा 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' ( १।४।४९ ) । इन स्थलों में पाणिनि का उद्देश्य केवल प्रकर्ष का द्योतन करना है, सामान्य का नहीं। यहाँ प्रकर्षबोधक 'तमप्' के प्रयोग के बिना केवल सामर्थ्य से प्रतीत होने वाले प्रकर्ष का बोध नहीं होता । दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार सभी आधारों को अधिकरण या सभी अपायों को अपादान होता है, उसी प्रकार सभी साधकों को करण या सभी ईप्सितों को कर्म
१. तुलनीय-( अर्थसंग्रह, पृ० ५४ ) 'विधिरत्यन्तमप्राप्ते' ।
ऋग्भाष्यभूमिका-सायण, पृ० ६–'अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणम्'। २. 'तत्र तमश्रुतिरेतज्ज्ञापयति प्रकर्षप्रत्ययग्रहणमन्तरेणेह प्रकरणे सामर्थ्यगम्यः प्रकों नाधीयते।
-कैयट-प्रदीप २, पृ० २५९