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संस्कृत-ग्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
में दात्र एवं चक्षु का करणत्व भी विवक्षाधीन है। वक्ता कहना चाहता है कि इनके व्यापारों के बाद ही क्रियासिद्धि हो गयी । यदि वक्ता कहना चाहे कि बल के व्यापार के बाद छेदन-क्रिया होती है या आलोक-व्यापार के अनन्तर दर्शन-क्रिया निष्पन्न होती है तो उपर्युक्त दात्रादि का तिरस्कार करके हमें कहना होगा-बलेन लुनाति, आलोकेन पश्यति । इसी विवक्षा के कारण किसी पदार्थ को निश्चित रूप से करण के रूप में व्यवस्थित नहीं किया जा सकता कि यह पदार्थ अमुक क्रिया की सिद्धि में सदा करण ही रहेगा। वक्ता कब किस पदार्थ के व्यापार के बाद क्रियानिष्पत्ति मानेगाइसका कोई निश्चय नहीं है । पाक-क्रिया में स्थाली का अधिकरण-भाव अत्यन्त प्रसिद्ध है। हम प्रयोग करते हैं 'स्थाल्यां पचति', क्योंकि पाक-क्रिया की निष्पत्ति में स्थाली आधार का काम करती है। किन्तु विवक्षा ऐसी हो तब न ? वक्ता सोचता है कि स्थाली बहुत पतली है और वह शीघ्रतर पाक के साधन के रूप में प्रयुक्त हो सकती है। अब स्थाली के व्यापार के अनन्तर पाक-क्रिया की परिनिष्पत्ति सरलता से होती है-यही कहने की उसकी इच्छा है। फलतः वह कहेगा-स्थाल्या पचति । यदि भींगे इन्धन से पाक-क्रिया हो रही हो तो उसकी अपेक्षा अच्छी तरह से रखी हुई पतली स्थाली क्रियासिद्धि के अत्यधिक निकट है-यही परिस्थिति है, जिसमें विवक्षा हो रही है ।
करण के उपर्युक्त प्रकर्ष के कारण ही फल की इच्छा रखनेवाला कर्ता इसमें संस्कार तथा पुनः-पुनः व्यापार आरम्भ करता है । भर्तृहरि का कथन है
_ 'करणेषु तु संस्कारमारभन्ते पुनः पुनः ।
विनियोगविशेषांश्च प्रधानस्य प्रसिद्धये ॥ -वा०प० ३७।९२ प्रधान अर्थात् क्रिया की सिद्धि (प्रसिद्धि-पूर्णता ) के लिए संस्कार ( उत्तेजनादि ) तथा विनियोग का काम करण में ही सम्पन्न होता है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति उपाय से ही सम्भव है ( उपायद्वारेणोपेये प्रवृत्तिः )। 'काष्ठः पचति' में काष्ठ करण के रूप में विवक्षित है । इसी में कर्ता संस्कार (काष्ठों को आग पर रखना-उपधान ) तथा विनियोग ( पुनः-पुनः स्थापित करना ) व्यापार आरम्भ करता है। 'दात्रेण लुनाति' में करणरूप दात्र में तीक्ष्णता का आधान करना संस्कार है तो उठाना-गिराना ( उद्यमन-निपातन ) विनियोग है । 'चक्षुषा पश्यति' में चक्षु का अंजनादि संस्कार है तथा उसे प्रणिहित करना ( प्रयोग में लाना ) विनियोग व्यापार है-ये कर्ता के द्वारा प्रारम्भ होते हैं।
१. 'साधनव्यवहारश्च बुद्ध्यवस्थानिबन्धनः' । -वा० प० ३।७।३ २. 'वस्तुतस्तदनिर्देश्यं, न हि वस्तु व्यवस्थितम् ।। __ स्थाल्या पच्यत इत्येषा विवक्षा दृश्यते यतः॥ -वा० ५० ३१७९१
३. 'प्रज्ञाताधिकरणभावा अपि हि स्थाली तनुतरकपालत्वाच्छीघ्रतरपाककार्यसाधनतयाऽनुभवत्येव वैवक्षिकं करणभावम्'।
-हेलाराज, वहीं ४. 'आर्दैन्धनापेक्षया हि सुसन्निवेशा स्थाली क्रियासिद्धौ प्रत्यासीदति'। -वहीं