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कर्म-कारक
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प्रत्यक्ष न होने के कई कारण होते हैं; जैसे-अधिक दूरी, अतिसामीप्य, इन्द्रिय की अक्षमता, मन की अस्थिरता इत्यादि ( द्रष्टव्य-सांख्यकारिका, ७ ) । अतः वस्तु के आवरण-भंग के रूप में अभिव्यक्ति आवश्यक है । कौण्डभट्ट आवरण-भंग को क्रियाकृत विशेष मानकर यह समाधान प्रस्तुत करते हैं कि प्रतिपत्ता के अतिरिक्त किसी और पुरुष को यह विशेष ज्ञात नहीं होता, यही क्रियाकृत विशेष का अर्थ है।'
(ग ) सोढत्व ( बोध की क्षमता )-योग्य देश में स्थिति और आवरणभंग के के अतिरिक्त दृश्य विषय का स्वभावतः बोध के योग्य होना ही आवश्यक है । अन्यथा अदृश्य स्वभाववाले देवताओं-राक्षसों को या मनुष्य में छिपे गुणों-दुर्गणों को कोई कैसे देख सकता है ?
इन तीनों अतिशयों के कारण दर्शन-क्रिया के प्रति प्राप्य कर्म साधन बनता है। इसी प्रकार अन्य क्रियाओं में भी इनका यथायोग्य निरूपण किया जा सकता है। 'ग्रामं गच्छति' में ग्राम इच्छा का विषय है, योग्य देश में स्थित है, गमन के योग्य ( सोढत्व ) है-अतः ये अतिशय गमन-क्रिया के साधक हैं। इनके अभाव में गमनक्रिया अनिष्पन्न रह जाती। 'वेदमधीते' में वेद अध्ययन-क्षम ( योग्य ) है। 'मातरं स्मरति' में उपकारमयी माता क्रूर-हृदय पुत्र के भी स्मृति-पथ में आकर स्मरण-क्रिया की सिद्धि करती है। यदि ईप्सिततम की विवक्षा न हो तो सम्बन्ध-सामान्य में शेषषष्ठी भी होती है-'मातुः स्मरति'।
मीमांसक, अद्वैतवेदान्ती तथा सारस्वतकारादि वैयाकरण इन तीन कर्मों के अतिरिक्त एक 'संस्कार्य' कर्म की सत्ता मानते हैं । पाणिनितन्त्र में ( जैसे बालमनोरमा में वासुदेवदीक्षित ) इसे विकार्य से अभिन्न समझा जाता है। किन्तु मीमांसक कहते हैं कि दर्पण के विमलीकरण-जैसे उदाहरणों में न तो कारणनाश है और न गुणान्तर की उत्पत्ति ही है, अतः यह विकार्य में अन्तर्भूत नहीं हो सकता । प्राप्य कर्म में भी इसका अन्तर्भाव सम्भव नहीं, क्योंकि दर्पण का विमलीकरण क्रियाजन्य विशेष की सिद्धि ( - स्वच्छता ) प्रत्यक्ष से ही ज्ञात हो जाती है। दर्पण में उनके अनुसार संस्कार नामक अतिशय उत्पन्न होता है जो न केवल प्रतिपत्ता ( कर्ता ) के द्वारा ज्ञेय है, प्रत्युत दूसरे भी इसे जान सकते हैं । इसी प्रकार सारस्वतकार गुणाधान ( वस्त्रं रञ्जयति रजकः ) तथा मलापकर्षण ( वस्त्रं क्षालयति रजक: ) के रूप में द्विविध अतिशय स्वीकार करते हैं । कभी-कभी पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ संस्कार की बात की जाती है, जिससे ‘राज्यं प्राप्नोति मिष्ठः' में राज्य संस्कार्य कर्म सिद्ध होता है ।२
कर्म के अन्य भेद (१) उदासीन कर्म-पाणिनि के 'तथायुक्तं चानीप्सितम्' सूत्र के द्वारा दो प्रकार के कर्मों को लक्षित किया जाता है-उदासीन और द्वेष्य । सांख्यदर्शन के
१. वै० भू०, पृ० १०६ । २. द्रष्टव्य-गुरुपद हाल्दार, व्या० द० इ०, पृ० २८३ ।