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कर्म-कारक
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यह आवश्यक नहीं कि विकार्य कर्म का उदाहरण देने में हम प्रकृति-विकृति का सम्बन्ध दिखलायें ही । जैसे 'घटं करोति' में प्रकृति के अभाव में भी निर्वर्त्य कर्म की उपपत्ति हो जाती है, उसी प्रकार विकृति के अभाव में 'काण्ड लुनाति', 'चर्म करोति' इत्यादि उदाहरणों में विकार्य कर्म देखा जा सकता है। तदनुसार 'कर्मण्यण' ( पा० ३।२।१) सूत्र से काण्डलावः, चर्मकारः, लौहकारः इत्यादि सिद्ध होते हैं। स्वर्णकार, लौहकार आदि शिल्पियों के लिए स्वर्ण, लौह आदि विकार्य हैं, जिन्हें वे विभिन्न रूप देते हैं । ये विकृत रूप निर्वर्त्य हैं।
(३ ) प्राप्य कर्म-कर्म का यह भेद उपर्युक्त शंकाओं तथा विवादों से मुक्त है । इसका लक्षण है
'क्रियाकृतविशेषाणां सिद्धिर्यत्र न गम्यते ।
दर्शनादनुमानाद्वा तत्प्राप्यमिति कथ्यते' ॥ -वा०प० ३।७।५१ प्राप्य कर्म वह है जिसके साथ क्रिया का सामान्य सम्बन्ध ज्ञात रहता है, किन्तु उस क्रिया के द्वारा उत्पन्न होनेवाली विशेषताओं का ( जैसे वस्तु के गुण या द्रव्य का परिवर्तन ) ज्ञान प्रत्यक्ष या अनुमान से नहीं मिलता। हेलाराज के अनुसार निर्वयं कर्म में प्रत्यक्ष के द्वारा वस्तु की निर्वत्ति या आत्मोपलब्धि के रूप में क्रियाकृत-विशेष का ज्ञान होता है । विकार्य में विकार-रूप क्रियाकृत-विशेष प्रत्यक्षसिद्ध है। कभीकभी अनुमान से भी उक्त विशेष का निश्चय होता है। जैसे किसी दूसरे व्यक्ति में स्थित सुखादि का ज्ञान उसके मुख की प्रसन्नता आदि लिंग देखकर किया जाता है। प्राप्य कर्म के उदाहरण हैं- 'रूपं पश्यति, आदित्यं पश्यति, वेदमधीते, ग्रामं गच्छति' इत्यादि । दर्शनादि क्रियाओं का कोई विशेष ( प्रभाव ) रूपादि कर्मों पर पड़ रहा है-इसका साक्षी न तो प्रत्यक्ष है और न ही अनुमान । प्रमाणों के द्वारा क्रिया का केवल सम्बन्ध ही लक्षित होता है। वह सम्बन्ध ही विशेष है, ऐसी बात नहीं । ग्राम में जो गमनक्रिया से जनित संयोग ( जो द्विष्ठ है ) विशेष के रूप में है, वह हिमालय को अंगुलि में छूने के समान अलक्ष्य है, क्योंकि ग्राम और पुरुष के परिणामों में बहुत अन्तर है । ( हेलाराज २, पृ० २७० )।
प्राप्य कर्म में क्रियाकृत विशेषताओं की सत्ता नहीं होनी चाहिए, ऐसा कहा गया है। कुछ लोग इस आधार पर प्राप्य कर्म का अस्तित्व ही नहीं मानते, क्योकि क्रियाजन्य विशेषताओं का तो अवधारण सर्वत्र सम्भव है । यह दूसरी बात है कि सूक्ष्मता के कारण सभी लोग उनका निश्चय नहीं कर पाते । स्थल-विशेषता होने पर तो उसका निश्चय करना कठिन नहीं ही है । कुछ सर्प ऐसे होते हैं जिनकी आँखों में ही विष (वै० भू० पृ० १०६ )-'ननु काष्ठं विकार्यं कर्मेत्युक्तमयुक्तम् । क्रियाजन्यफलाश्रयस्वाभावादिति चेदत्राहुः । प्रकृतिविकृत्योरभेदविवक्षया निरूढयोत्पत्त्याश्रया। यद्वा काष्ठानि विकुर्वन् भस्म. करोतीत्यर्थः । ( तण्डुलमोदनं पचतीत्यत्र ) तण्डुलान् विक्लेदयन्नोदनं निवर्तयतीतिवत्' ।