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कर्म-कारक
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लघुमञ्जूषा' में प्रायः एक समान ही कर्मत्व का परिष्कार करते हैं । उनके अनुसार कर्मकारक प्रस्तुत धातु के अर्थभूत प्रधान व्यापार से प्रयोज्य ( साक्षात् या परम्परया उत्पाद्य ) प्रस्तुत धातु के अर्थभूत फल के आश्रय के रूप में कर्ता का उद्देश्य ( अर्थात् इच्छा का विषय, विशेषतः विशेष्य ) होता है । यह कर्मलक्षण में ईप्सिततम का परिष्कार है, अन्य सूत्रों के कर्म का नहीं । इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण की सहायता लें । 'कुलालो घटं करोति' इस वाक्य में प्रस्तुत धातु है 'कृ' ( करना ) | उसका अर्थभूत प्रधानव्यापार है -- उत्पत्त्यनुकूल व्यापार । इस प्रधानीभूत व्यापार के द्वारा प्रयोज्य उत्पत्ति है, जो प्रस्तुत धातु के अर्थ का फल है । उत्पत्तिरूप फल का आश्रय घट हो - इस प्रकार कर्ता की इच्छा होती है । इस इच्छा का विषय घट है, अतः वह कर्म है । विषयता एक व्यापक शब्द है, जिसके तीन रूप होते हैं— प्रकारता, विशेष्यता तथा संसर्गता; २ अतः यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इनमें किस रूप की विषयता घट और इच्छा के बीच है ? उत्तर है कि घट इच्छा का विशेष्य है । कर्ता ( कुलाल ) का उद्देश्य है कि घट उत्पत्ति का आश्रय बने । कुलाल की इस इच्छा का विशेष्यरूप विषय घट है, अतः वह कर्म है ।
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व्याख्याकारों ने इस लक्षण में आये हुए 'फलाश्रयत्व' का विशेषरूप से परिष्कार किया है ( द्रष्टव्य - ज्योत्स्ना १७१ ) । उनका कथन है कि किसी वस्तु को फलाश्रय होने के लिए फलतावच्छेदक सम्बन्ध से युक्त होना आवश्यक है । इसमें पुनरुक्ति नहीं है । जिस सम्बन्ध से फल का आश्रय में रहना अभीष्ट हो उसे फलतावच्छेदक सम्बन्ध कहते हैं । यह धातुभेद से स्वयं भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । दो उदाहरणों से इसका निदर्शन कर सकते हैं । 'ग्रामं गच्छति' इस वाक्य में 'अनुयोगित्व से विशिष्ट समवाय' के रूप में यह सम्बन्ध है । ' इसी सम्बन्ध के कारण ग्राम संयोगाश्रय हो' - इस आकार की हमारी इच्छा से सम्बन्ध फल में निहित विषयतारूप अवच्छेदकता समवाय में ही है; अत: इस ( समवाय ) सम्बन्ध से ही फलाश्रय को कर्म हुआ है, कालिक आदि सम्बन्धों से नहीं । कारण यह है कि इन सम्बन्धों में फलतावच्छेदकता की स्थिति नहीं होती । इस विश्लेषण से एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह होता है कि संयोग दो पदार्थों में स्थित होने के कारण ( द्विष्ठत्वात् ) समवायरूप से ग्राम के समान ही चैत्र में भी रह सकता है, तथापि 'चैत्रो ग्रामं गच्छति' के समान 'चैत्रः स्वयं गच्छति' ऐसा प्रयोग सम्भव नहीं । यह सत्य है कि चैत्र में भी समवाय- सम्बन्ध से फल ( संयोग ) स्थित है, किन्तु ऊपर परिष्कार कर चुके हैं कि इस वाक्य में अनुयोगित्व - विशिष्ट समवाय से फलतावच्छेदक सम्बन्ध है, जो चैत्र में सम्भव नहीं ।
१. " तत्र 'कर्तुरीप्सितमं कर्मेति सूत्रबोधितं कर्मत्वं कर्तृगतप्रकृतधात्वर्थव्यापारप्रयोज्यव्यापारव्यधिकरणफलाश्रयत्वेन कर्तुरुद्देश्यत्वम्” । - ल० म०, पृ० १२०१ २. 'इयं विषयता त्रिविधा -- विशेष्यता, प्रकारता संसर्गता चेति । यथायं घटः इति प्रत्यक्षे घटत्वे प्रकारता, इदमर्थे विशेष्यता, समवायादो सम्बन्धे च संसर्गता' । - न्या० को ०, पृ० ७९१