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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
उसे रोक देती है । इस प्रकार हेलाराज व्रज को ईप्सित कर्म के रूप में सिद्ध कर देते हैं, जो अन्यथा अकथित रूप में प्रसिद्ध है। नागेश रुध-धातु का अर्थ---'निर्गमन के प्रतिबन्ध के द्वारा व्रज में चिरस्थिति के अनुकूल व्यापार' करते हैं । अर्थ है-'बजे गौस्तिष्ठति' ( स्थानापेक्षा से अधिकरण ) । वहाँ उसे निर्गमन-प्रतिबन्ध के द्वारा देर तक स्थापित करता है । अतः उसके अधिकरणत्व की विवक्षा नहीं होने से अकथित कर्म हुआ है । विवक्षा से अधिकरण भी हो सकता है।
( ४ ) माणवकं पन्थानं पृच्छति-अन्तर्भूत णिजर्थ माननेवाले कहेंगे कि माणवक मार्ग बतलाता है, दूसरा उसे प्रेरित करता है ( आख्यापयति ) । अथवा यह कहें कि माणवक मार्ग बतलाना चाहता है ( आचिख्यासति ), दूसरा उसे ऐसा करने को प्रेरित करता है ( आचिख्यापयिषति ) । प्रयोज्य कर्ता होने से माणवक को कर्मसंज्ञा हो जाती है; प्रेष-व्यापार का वह कर्म जो है । नागेश कहते हैं कि जिज्ञासा के विषयभूत पदार्थ के ज्ञान के अनुकूल तथा 'किस मार्ग से जाना चाहिए' इत्यादि शब्द-प्रयोग के रूप में स्थित व्यापार पृच्छ-धातु का अर्थ है । सम्बन्ध-सामान्य से माणवक और उसके व्यापार का अन्वय होता है । साथ ही ज्ञान का विषय होने से पथ कर्मसंज्ञक है । माणवक उक्त ज्ञान का आश्रय है--यही सम्बन्धसामान्य है। पूर्वोक्त कोई भी संज्ञा प्राप्त नहीं होने से यह अकथित कर्म है ।
(५) वृक्षमवचिनोति फलानि-वृक्ष फल का मोचन करता है, दूसरा कोई उसे वैसा करा रहा है ( मोचयति ) । इस हेलाराजीय व्याख्यान में वृक्ष को ईप्सित कर्म ही कहा जाता है, क्योंकि प्रेष-व्यापार के द्वारा वह व्याप्य है। दूसरी ओर, विभागपूर्वक आदान को चि-धातु का अर्थ स्वीकार करते हुए नागेश 'वृक्षात्फलान्यादत्ते' ऐसा विवरण देते हैं । स्पष्ट है कि अवधि की विवक्षा नहीं होने से इसे प्रस्तुत अकथित कर्म कहा गया है।
(६) माणवकं धर्म ब्रूते शास्ति वा--धातु को यहाँ हेलाराज 'प्रतिपादयति' के अर्थ में लेते हैं ( माणवक: धर्म प्रतिपद्यते, तमपरः प्रतिपादयति )। तदनुसार माणवक में ईप्सित कर्म का विधान होता है । 'शास्ति' में 'शिक्षते-शिक्षयति' का भाव है। हेलाराज कहते हैं कि कर्म के द्वारा अभिप्रेयमाण होने पर भी माणवक को सम्प्रदान-संज्ञा यहां नहीं होती, क्योंकि एक तो धर्म दा-धातु का कर्म नहीं; दूसरे भाष्यकार के अनुसार सम्प्रदान-संज्ञा होने पर प्रधान व्यापार वाली कर्मसंज्ञा उसे रोक देगी। एक अन्य कारण यह है कि जो कर्म कर्ता को ईप्सिततम होता है, उसी के द्वारा अभिप्रेत होने पर किसी को सम्प्रदान-संज्ञा होती है; जैसे—'उपाध्यायाय गां ददाति' । यहां गौ दाता ( कर्ता ) को प्रिय है इसीलिए गुणवान् व्यक्ति को दी जाती है । प्रकृत स्थल में पूर्वसिद्ध होने से धर्म कर्ता को अभिमत नहीं है। वह तो चाहता है कि माणवक को अनुगृहीत करे ( तेन तु माणवकोऽनुग्रहीतुमभिप्रेतः )। अत: प्रयोज्य का यहाँ ईप्सित कर्म है, प्रयोजक का नहीं। अतः सम्प्रदान का विषय ही नहीं है कि अविवक्षा का प्रश्न उठे।