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कर्म-कारक
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कालादि को कर्म के रूप में तो सभी धातु ग्रहण कर सकते हैं, यदि उपर्युक्त व्यवस्था कर दी जाय । इसमें सकर्मक तथा अकर्मक का प्रश्न ही नहीं उठता । पतञ्जलि ने यही देखकर 'गतिबुद्धि०' ( पा० १।४।५२ ) सूत्र का विवेचन करने के समय अकर्मक के तीन अर्थ किये हैं--(१) काल, भाव, अध्व को छोड़कर किसी दूसरे को जो कर्म नहीं बनाता वह अकर्मक है । ( २ ) जिस कर्म ( कालादि ) के कारण धातु सकर्मक तथा अकर्मक दोनों ही बन सकता हो उस कर्म को धारण करने वाला धातु अकर्मक है । ( ३ ) जो दूसरे स्थानों पर कर्म होने की योग्यता रखता हो ऐसे कर्म को ग्रहण करनेवाला धातु अकर्मक है । पतञ्जलि इस प्रकार कालादि कर्मों की व्यापकता का संकेत करते हैं कि सभी स्थितियों में ये कर्म हो सकते हैं, भले अप्रधान ही क्यों न हो।
कालादि कर्म के समान ही क्रियाविशेषण को कर्म मानने की बात भी कुछ स्थानों में उठायी गयी है; यद्यपि पाणिनितन्त्र में इसकी परम्परा नहीं है। हैमशब्दानुशासन ( २।२।४१ ), सरस्वतीकण्ठाभरण ( १।४।४१ ), संक्षिप्तसार ( ५८ ) तथा कारकोल्लास में क्रियाविशेषण को कर्म माना गया है । मधुर, स्तोक आदि क्रियाविशेषण क्रियाओं से व्याप्य होने के कारण कर्म कहे जा सकते हैं । नागेश भी उक्त स्थिति का समर्थन अपने लघुशब्देन्दुशेखर' में करते हैं । स्तोकं पचति-स्तोकं पचनं करोति । 'पचति' क्रिया के प्रयोग में अन्न-विक्लेदन के रूप में पाक या पचन फल है । जब इसे 'करोति' के द्वारा विश्लिष्ट करते हैं तब 'पाक' कर्म बन जाता है, जिसके समानाधिकरण विशेषण स्तोक को भी कर्म-संज्ञा हो जाती है । नैयायिकों को यह मत सर्वथा अमान्य है, क्योंकि क्रिया में प्रकारीभूत होने पर भी ( जगदीश के अनुसार कारक का लक्षण होने पर भी )२ सुप्-प्रत्ययों की व्यवस्था नहीं होने से क्रियाविशेषण कारक नहीं है। यह दूसरी बात है कि नपुंसकलिंग के समान द्वितीया विभक्ति आनुशासनिक रूप से लगायी जाती है । भवानन्द ने तो कारकलक्षण का पदकृत्य करने के समय स्पष्टतः क्रियाविशेषण के कर्मत्व का खण्डन किया है-'स्तोकं पचतीत्यादौ क्रियाविशेषणेऽतिव्याप्तिवारणाय विभक्त्यर्थद्वारेति' ( कारकचक्र, पृ० ५)। जैसा कि कहा जा चुका है, पाणिनितन्त्र में भी इसकी सर्वथा उपेक्षा की गयी है।
कर्म के भेद तत्त्वतः एक ही प्रकार का होने पर भी व्यावहारिक भेद के आधार पर कर्म के भी भेद किये जाते हैं । भर्तृहरि तथा हेलाराज ने कर्म के एकत्व के निरूपण का
१. “फलस्यापि व्यपदेशिवद्भावेन फलसम्बन्धित्वात् कर्मत्वम् । अत एव तत्समानाधिकरणे 'स्तोकं पचति' इत्यादौ कर्मत्वसिद्धिः" ।
-पृ० ४०२ २. 'धात्वर्थांशे प्रकारो यः सुबर्थः सोऽत्र कारकम्' । -श० श० प्र०, का० ६७ ३. 'यथैवैकमपादानं शास्त्रे भेदेन दर्शितम् । तथैकमेव कर्मापि भेदेन प्रतिपादितम् ॥
-वा०प०३७१७८