________________
१८६
संस्कृत-म्याकरण में कारकतत्वानुशीलम
बड़ा प्रयास किया है तथा ईप्सिततम के अतिरिक्त कर्मभेदों को मन्दबुद्धि लोगों पर अनुग्रह करने के लिए प्रपंचित बतलाया है । वास्तव में ईप्सिततम के रूप में एकमात्र कर्म है, जिसे अन्य भेद करने पर मुख्य कर्म कहते हैं। तथापि प्रपंच के लिए ही सही, कर्म के भेद किये गये हैं। सर्वप्रथम हम पाणिनि के अनुसार कर्म के दो भेद करें-(१) ईप्सिततम तथा ( २ ) सूत्रान्तरों में लक्षित । ईप्सिततम के तीन भेद हैं -निर्वयं, विकार्य तथा प्राप्य' । दूसरे सूत्रों में लक्षित कर्म चार प्रकार के हैं - उदासीन, द्वेष्य, अकथित ( संज्ञान्तर से अविवक्षित ) तथा अन्यपूर्वक २ । इस प्रकार कुल ७ भेद हैं।
(१) निर्वयं कर्म ----भर्तृहरि ने इसके दो प्रकार के लक्षण दिये हैं, तथापि दोनों का फलितार्थ समान है । प्रथम लक्षण है--
'सती वाऽविद्यमाना वा प्रकृतिः परिणामिनी ।
यस्य नाश्रीयते तस्य निर्वय॑त्वं प्रचक्षते ॥ --वा० प० ३।७।४७ निर्वतित ( उत्पन्न या अभिव्यक्त ) होनेवाले घटादि पदार्थ की प्रकृति चाहे सत् हो ( जैसे घट की प्रकृति मृत्तिका ), चाहे अविद्यमान हो ( जैसे शब्द की प्रकृति संयोगादि ); यदि अभिन्न रूप में स्वीकृत न हो ( परिणामिनी = अभेदरूपा ), 'मृदं घटं करोति' के रूप में विवक्षित न हो, प्रत्युत 'मृदा घटं करोति' इस प्रकार भेदरूप में ही विवक्षित हो-तब प्रकृति के साथ भिन्न रूप में विवक्षा होने पर निवर्त्य कर्म कहलाता है। __ वस्तु की कारणावस्था से कार्यावस्था में आने की बात पर दार्शनिकों में दो विभिन्न मत दिखलायी पड़ते हैं । वे हैं --असत्कार्यवाद तथा सत्कार्यवाद । असत्कार्यवाद न्याय-वैशेषिक द्वारा स्वीकृत मत है, जिसमें कारणनाश के बाद कार्योत्पत्ति मानी जाती है । इनका मत है-'सतः कारणादसत्कार्य जायते' । पूर्वद्रव्य की चूंकि पूर्णनिवृत्ति के अनन्तर द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होती है, अतः द्रव्यान्तर की सत्ता उसकी उत्पत्ति के पूर्व मानना सम्भव नहीं । तदनुसार कोई भी कार्य नये रूप में उत्पन्न होता है। दूसरी ओर, सत्कार्यवाद के प्रतिपादक सांख्यादि ( अद्वैतवेदान्ती, वैयाकरण )४ कहते हैं कि कारणावस्था में कार्य अव्यक्त रहता है जो व्यक्त हो जाने पर कार्य कहलाता है । सांख्यकारिका ( का० ९ ) में इस मत के समर्थन में पांच युक्तियां दी १. 'निर्वयं च विकार्य च प्राप्यं चेति त्रिधा मतम् ।
तत्रेप्सिततमं कर्म चतुर्धान्यत्तु कल्पितम् ॥ -वा० प० ३।७।४५ २. 'औदासीन्येन यत्प्राप्यं यच्च कर्तुरनीप्सितम् । ___ संज्ञान्तरैरनाख्यातं यद्यच्चाप्यन्यपूर्वकम्' ॥ -वही, ३।७।४६ ३. 'व्यूहान्तराद् द्रव्यान्तरोत्पत्तिदर्शनं पूर्वद्रव्यनिवृत्तेरनुमानम्' ।
-न्यायसूत्र ३।२।१६ पर न्यायभाष्य ४. तुलनीय–वै० भू० ( पृ० १०६ ) 'सदिति स्वरीत्या साह्यादिमते च' ।