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कर्म-कारक
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के ही अनुकूल व्यापार रहता है, जो दिलाने की इच्छा ( दिदापयिषा ) का भी व्यंजक है' । पौरव में पूर्वोक्त किसी भी विषय ( संज्ञा ) की प्राप्ति नहीं होती, अतः वह अकथित कर्म है । चूंकि धातु का अर्थ 'विभाग' नहीं है, अतः अपादान -संज्ञा का प्रसंग नहीं होगा । भाष्य में कहा गया है - 'न याचनादेवापायो भवति । याचितोऽसौ यदि ददाति ततोऽपायेन युज्यते' ( भाष्य, खण्ड २, पृ० २६५ ) । कैयट भी कहते हैं कि याचक भी माँगने के समय यह निर्णय नहीं कर पाता है कि सचमुच याचित पदार्थ उससे निकलकर मुझे मिल ही जायगा । यह स्थिति बुद्धिकृत अपाय का भी अवकाश नहीं छोड़ती ।
गदाधर ने ( व्यु ० वा०, पृ० १४४ ) याचना का अर्थ किया है—अपने उद्देश्य से दान की इच्छा ( स्वोद्देश्यकदानेच्छा ) । नागेश इसका खंडन करते हैं कि ऐसा मानने पर 'पुत्रार्थं कन्यां याचते' (पुत्र के लिए, अपने लिए नहीं, कन्या माँगता है ) - इस प्रकार के स्थलों में याच धातु का प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि दान स्वोद्देश्यक न होकर पुत्रोद्देश्यक है । दूसरी बात यह है कि अपने उद्देश्य से ( अपने को सम्प्रदान बनाकर ) दान कराने की इच्छा रखनेवाले पुरुष ( चैत्रादि ) में 'चैत्रो याचते' जैसा प्रयोग होने लगेगा - भले ही वह पुरुष फल न मिलने की शंका से 'हमें दीजिए' ऐसा कुछ नहीं बोल रहा हो । तात्पर्य यह है कि इच्छा की स्थितिमात्र से व्यापार नहीं भी करने से याचना -क्रिया की अनिष्ट उपपत्ति होने लगेगी ।
भट्टोजिदीक्षित तथा नागेश 'बलि याचते वसुधाम्' यह सामान्य उदाहरण देकर एक विशेष उदाहरण देते हैं - अविनीतं विनयं याचते ( उद्दण्ड पुरुष से विनय की याचना करता है ) । यहाँ स्वीकारानुकूल व्यापार के अर्थ में धातु है । 'मैं यह अवश्य करूँगा' - इस प्रकार की उक्ति के जनक ज्ञानविशेष के अर्थ में यहाँ स्वीकार- शब्द का प्रयोग है । यह सम्प्रदान का विषय नहीं है, क्योंकि याचना करने से ही किसी व्यक्ति का विनय के साथ सम्बन्ध नहीं हो जाता । हाँ, इतना अवश्य है कि उसे विनय विषयक ज्ञान हो जाता है । याचना से भिक्षु धातु भी व्याख्यात है ।
(३) व्रजमवरुणद्धि गाम् - हेलाराज यहाँ कहते हैं कि प्रवेशन- क्रिया का प्रेरणार्थक रूप यहाँ अन्तर्भूत है – गौ व्रज ( गोशाला ) में प्रवेश करती है, उसे दूसरा व्यक्ति प्रवेश करा रहा है । प्रवेशन - क्रिया का कर्म व्रज है, प्रेषण का कर्म गौ है । प्रवेशन का अर्थ यदि स्थापन करना हो तो व्रज अधिकरण हो जाता है, किन्तु दोनों संज्ञाओं की युगपत् प्राप्ति होने पर परवर्तिनी कर्मसंज्ञा होती है; जैसे— गेहं प्रविशति । यहाँ प्रवेश का गौणार्थ स्थान ( ठहरना ) प्रधान है ( गेहं प्रवेशनेन व्याप्य तिष्ठति ) । प्रवेश की अपेक्षा से व्रज कर्म है तो स्थान की अपेक्षा से अधिकरण भी है, किन्तु परवर्ती कर्मसंज्ञा
१. ल० म०, पृ० १२२८ ।
२. ल० म०, पृ० १२२८ तथा कला १२२९ । ३. ल० श० शे०, पृ० ४१२ ।