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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन क्षारण कैसे सम्भव है ? उपर्युक्त प्रकार से कर्मत्व का उपपादन करने पर यदि अपादान और कर्म की युगपत्-प्राप्ति हो, अपादान को रोककर कर्मसंज्ञा हो जायगी। इसके विपरीत यदि 'अकथित' सूत्र से कर्मसंज्ञा की जाय तो अपादान के रूप में 'कथित' होने के कारण वह नहीं हो सकेगी। ___ नागेश भी हेलाराज के इस विवेचन का निर्देश करते हैं कि एक पक्ष में दुहादि धातुओं से दो-दो व्यापारों का युगपत् बोध होता है; जैसे दुह का अर्थ है-विभागानुकूल-व्यापारानुकूल-व्यापार । यहाँ गौ दुग्ध का त्याग करती है, देवदत्त उसे त्याग करने को प्रवृत्त करता है । इस अर्थ की प्रतीति में गौ की सक्रियता प्रकट है । दुग्ध में स्थित विभाग के अनुकूल गौ में स्थित व्यापार है, जिसके अनुकूल व्यापार दुहधातु का अर्थ है । यह दो व्यापारों को समाविष्ट करता है। किन्तु इस पक्ष में 'अकथित' सूत्र व्यर्थ हो जायगा, जो नागेश को इष्ट नहीं है। दूसरी बात यह है कि गौ की निष्क्रियता में दोहन होने पर भी तो इस वाक्य का प्रयोग हो सकता है-जिसे यह पक्ष अन्तर्भूत नहीं कर सकता। इसीलिए दुह धातु के अर्थ में संशोधन करना अपेक्षित है-दुग्ध में स्थित विभाग के अनुकूल व्यापारमात्र दोहन है। यह दूसरा पक्ष शास्त्रीय तथा इष्ट भी है। मञ्जूषा तथा शब्देन्दुशेखर में इसे स्पष्ट किया गया है कि अन्तःस्थित द्रवित होनेवाले द्रव्य ( दुग्ध ) में विभाग के अनुकूल व्यापार होना ही दोहन है। अपादान-रूप गौ की तथारूप विवक्षा नहीं होने पर इसी से कर्मत्व होता है। __ शब्दशक्ति-प्रकाशिका में एक विलक्षण विचार है कि गौ को प्रधान तथा दुग्ध को अप्रधान कर्म बतलाया गया है। वहाँ जगदीश कहते हैं कि दुह-धातु मोचनानुकल व्यापार के अर्थ में आता है और मोचन बहिःक्षरण के अनुकूल क्रिया ही का नाम है । क्षरण दुग्ध में है, किन्तु तदनुकूल क्रिया गौ में ही है। अतः उक्त मोचन-क्रिया का आश्रय गौ प्रधान कर्म है तथा परम्परा से धात्वर्थता की अवच्छेदक (क्षरण ) क्रिया का आश्रय दुग्ध अप्रधान कर्म है । जगदीश का यह विचार अत्यन्त भ्रामक है, जिसका संशोधन गदाधर ने व्युत्पत्तिवाद में करके कर्म का दूसरा लक्षण देते हुए दुग्ध को ही प्रधान कर्म सिद्ध किया है।
( २ ) पौरवं गां याचते --यहां हेलाराज 'याचते' का अर्थ 'दापयति' करते हुए कहते हैं कि पौरव गोदान करता है; याचक उसमें श्रद्धा उत्पन्न करके दान के लिए प्रवृत्त करता है। वाच्य के रूप में ही याचना का प्रेरणार्थ अन्तर्भूत है । याचन का कर्म गौ है, किन्तु प्रेरणा का कर्म पौरव है । अतः सामान्य नियम से ही इसमें कर्मसंज्ञा हुई है। किन्तु नागेशभट्ट याच्-धातु के अर्थ का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि इसमें स्वामी के स्वत्व की निवृत्ति तथा अपने स्वत्व की उत्पत्ति-इन दोनों
१. हेलाराज, वही, पृ० २८९ । २. ल० श० शे०, पृ० ४१२ ।