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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन स्थान देकर दोनों को गतार्थ क्यों नहीं कर लिया जाता ? 'पौरवं गामर्थयते' में उसी अर्थ में अर्थ-धातु का प्रयोग है । अतः किसी एक धातु से कार्य-सम्पादन हो जाता। इसके उत्तर में कुछ लोगों का कथन है कि याच्-धातु का अर्थ 'अनुनय करना' होता है; जैसे-विनयं याचते ( विनय के लिए अनुनय कर रहा है )। अच्छा, यदि ऐसी बात है तब अनेकार्थक याच्-धातु का ही ग्रहण कर लें, जिससे भिक्ष-धातु की भी सिद्धि हो जाय । इस पर वे लोग कहते हैं कि नहीं, अर्थभेद से शब्दभेद मानने वाले सिद्धान्त के अनुसार याच्-धातु केवल अनुनय के ही अर्थ में ग्राह्य है । इसीलिए तो नी-धातु के ग्रहण से अनुनय-अर्थ को गतार्थ नहीं किया जाता है । दीक्षित इस युक्ति से अपनी अरुचि दिखलाते हैं ('स्पष्टार्थ भिक्षेः ग्रहणमित्यन्ये'-- श० को०)। अतः सिद्धान्तकौमुदी में द्विकर्मक धातुओं की सूची देने के समय वे इन विवादों से हटकर भिक्ष का ग्रहण नहीं करते
'दह्याचपचदण्डाधिप्रच्छि-चि-ब्रशास-जिमथ्मुषाम् ।
कर्मयुक् स्यादकथितं तथा स्यानोहकृष्वहाम्' ॥ दीक्षित की यह सूची समस्त शंकाओं का समाधान करती है। एक तो यह द्विकर्मक धातुओं की पूर्ण सूची है, जिसमें धातुओं की पर्यायतापत्ति नहीं और दूसरे इन्हें दो राशियों में पृथक् करके पूर्ण वैज्ञानिकता का परिचय दिया गया है। स्पष्टीकरण यह है कि कर्मवाच्य में जो कर्म का अभिधान होता है वह गौण कर्म का हो या प्रधान का-इस प्रश्न का पूर्ण उत्तर इसके द्वैराश्य में निहित है। दुहादि बारह धातुओं के प्रयोग में गौण कर्म अभिहित होता है अर्थात् उसमें लकार, कृत्य, क्त तथा खलर्थ प्रत्यय होते हैं-गौः दुह्यते पयः, दोह्या, दुग्धा, सुदोहा इत्यादि । दूसरी ओर नी रादि चार धातुओं के प्रयोग में प्रधान कर्म ही अभिहित होता है-अजा ग्राम नीय नेया, नीता, सुनगा । यह भी ज्ञातव्य है कि णिजन्त प्रयोग में जो द्विकर्मक धातु 5 गले सूत्र के अनुसार होते हैं वहाँ बोध, भोजन तथा शब्दकर्म वाले णिजन्त धातओं के 'कर्मणि-प्रयोग' में स्वेच्छा से जिस कर्म में चाहें अभिधान करें-बोध्यते माणवकं धर्मः, माणवको धर्म वा । अन्य णिजन्तों के कर्मणि-प्रयोग में प्रयोज्य कर्म में अभिधान होता है-देवदत्तो ग्रामं गम्यते, गमयितव्यः, गमितः, सुगमः ।
अकथित कर्म पर भर्तृहरि का वक्तव्य प्रधान तथा अकथित के रूप में द्विविध कर्म की सत्ता का विश्लेषण करते हुए भर्तृहरि कहते हैं१. 'अर्थभेदेन शब्दभेद इति दर्शनमाश्रित्यानुनयार्थस्येव याचेरिह ग्रहणात्' ।
-श० कौ०, पृ० १३२ २. श० को०, पृ० १३४-अत्रायं सङ्ग्रहः
'गौणे कर्मणि दुह्यादेः प्रधाने नीहकृष्वहाम् । बुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्मसु चेच्छया' ।