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कर्म-कारक
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रामचन्द्र ने स्वयं कहा है कि नी आदि धातुओं के साथ मुख्य कर्म में, किन्तु दुहादि के साथ गौण कर्म में लकारादि होंगे - ( गौण कर्म अभिहित होगा ) | यह रामचन्द्र की भूल है, क्योंकि नी आदि में उन्होंने मन्थ्, दण्ड, मुष्, मच् -- इन ऐसे धातुओं को रखा है जिनके गौण कर्म में ( मुख्य कर्म में नहीं ) लकारादि होते हैं; यथा - 'येनापविद्धसलिलस्फुटन । गसद्मा देवासुरैरमृतमम्बुनिधिर्ममन्ये' ।
- किरात ० ५।३० उद्देश्य होने के कारण अमृत मुख्य कर्म है, अम्बुनिधि गौण । किन्तु गौण कर्म ही अभिहित है।
पच्-धातु की द्विकर्मकता पर कुछ लोगों ने सन्देह प्रकट किया है, क्योंकि प्रकृत स्थल में भाष्य तथा कैयट में इसका संकेत नहीं है । प्रत्युत 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' सूत्र पर भाष्य लिखते हुए पतञ्जलि 'तण्डुलानोदनं पचति' के उदाहरण में पच् के दो अर्थ मानते हैं - पकाना ( कोमल करना ) और निर्वर्तन ( संपादन ) । कैयट का कथन है कि उपसर्जनभूत विक्लेदन - क्रिया की अपेक्षा से तण्डुल कर्म है और प्रधानभूत निर्वर्तन-क्रिया की अपेक्षा से ओदन कर्म है अर्थात् दोनों ही ईप्सिततम कर्म हैं । किन्तु ऐसी बात नहीं । यह स्पष्ट है कि यहाँ दो कर्म हैं । दोनों में ओदन ही ईप्सिततम है, यही भाष्य का आशय है; क्योंकि पतंजलि स्वयं कहते हैं - ' तण्डुलविकारमोदनं निर्वर्तयति' । दूसरे 'कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रिय:' ( पा० ३ । १ ८७ ) में स्थित वार्तिक - 'दुहिपच्योर्बहुलं सकर्मकयो:' की व्याख्या में भी वे इसे स्पष्टत: द्विकर्मक मानते हैं, जिसका समर्थन कैयट तथा हरदत्त ने भी किया है । इसीलिए माधव ने इसे द्विकर्मक-सूची में रखा है। दीक्षित ने फिर भी ( श० कौ०, पृ० १३२ ) भाष्यकार के 'द्वयर्थः पचिः ' ( भाष्य २, पृ० २६१ ) इस उक्ति को माधव के द्वारा 'च' से पच् का ग्रहण किये जाने से भिन्न माना है । इन दोनों में मतान्तर है, अन्यथा 'तण्डुलानोदनं पचति' इस प्रयोग की उपपत्ति में भाष्यकार को व्यर्थं क्लेश करने का क्या प्रयोजन है ? जो भी हो, माधव के बाद के कोई वैयाकरण इसे द्विकर्मक-सूची में रखना नहीं भूलते ।
दुहादि धातुओं के स्वरूपमात्र से द्विकर्मकता नहीं होती प्रत्युत इनके अर्थ में प्रयुक्त होने वाले दूसरे धातुओं के साथ भी अकथित कर्म होता है । यह रहस्य भाष्यकार की उक्ति पर ही आश्रित है, जिन्होंने २।४।६२ के भाष्य में 'अहमपीदमचोद्यं चोद्ये' इत्यादि वाक्यों में पूछने के अर्थ में चु-धातु का प्रयोग करते हुए इसे द्विकर्मक माना है | महाकवियों के कतिपय प्रयोग भी इसका समर्थन करते हैं । तब प्रश्न यह होता है कि भिक्षु तथा याच् धातु तो समानार्थक हैं, अतः एक ही धातु को सूची में
१. प्रौढमनोरमा पृ० ४९० - १, श० कौ० २, पृ० १३५ । २. 'शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैः प्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव' 'उदारचेता गिरमित्युदारां द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः ॥ 'स्थास्नुं रणे स्मेरमुखो जगाद मारीचमुच्चैर्वचनं महार्थम्' ।
। – रघु० २०५१ - किरात ३।१०
- भट्ट २३२