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कर्म-कारक
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प्रधान कर्म, धर्मादि )' से जो सम्बद्ध होता है उसे भी आचार्य ( पाणिनि ) ने अकथित ( अकीर्तित ) माना है ।
इसके बाद इनके प्रयोगों का विवेचन करते हुए पतञ्जलि बतलाते हैं कि पूर्वपक्षी केवल इन तीन धातुओं के प्रयोगों को शुद्ध समझता है--पौरवं गां याचते, माणवकं पन्थानं पृच्छति, पौरवं गां भिक्षते । केवल इन्हीं प्रयोगों में अपादान-संज्ञा बाधक नहीं बनती । केवल याचना करने, पूछने या भिक्षा मांगने से ही अपाय नहीं हो जाता । दाता जब तक दे नहीं, अपाय नहीं होगा । अन्य स्थलों में पूर्वपक्षी दूसरी कारकसंज्ञाएँ मानकर अकथित कर्म का खण्डन करता है । 'गां दोग्धि पयः' में गौ अपादान है, 'अन्ववरुणद्धि गां व्रजम्' ( गाय को बलात् गौशाला में घुसाता है )- इसमें व्रज अधिकरण, 'वृक्षमवचिनोति फलानि' में वृक्ष अपादान तथा 'पुत्रं धर्म ब्रूते, अनुशास्ति' में पुत्र सम्प्रदान है । पूर्वपक्षी यह नहीं जानता कि ये उदाहरण उन-उन कारकों की अविवक्षा के कारण हैं (उद्योत २, पृ० २६६) । वस्तुस्थिति यह है कि जिन उदाहरणों को अकथित कर्म के रूप में स्वीकृति दी गयी है उनमें कारकान्तरविवक्षा के प्रयोग नहीं होते, जब कि दुहादि धातुओं के प्रयोग विवक्षा से उभयविध होते हैं। इसीलिए 'अकथित' का अर्थ अप्रधान नहीं लेकर असंकीर्तित लिया गया है ( प्रदीप २, पृ० २६६-७ ) । अप्रधान अर्थ लेने पर दुहादि धातुओं के साथ अपादानादि संज्ञाओं की विवक्षा होने पर भी उन्हें रोककर केवल कर्मसंज्ञा ही होती । 'पुत्रं धर्म अते' ही होता, जब कि 'पुत्राय धर्म ब्रूते' भी उतना ही शुद्ध है । वैसे आचार्य पतञ्जलि सभी उदाहरणों को स्वीकृति देने की मुद्रा में हैं।
द्विकर्मक धातुओं की उपर्युक्त सूची में पतञ्जलि नी, वह, ह तथा गत्यर्थकइन अतिरिक्त धातुओं को भी साथ लेते हैं । कैयट के अनुसार गत्यर्थक धातुओं से बादवाले ( पा० सू० १।४।५२ ) सूत्र के अन्तर्गत गिनाये गये—गत्यर्थक, बोधार्थक, भोजनार्थक, शब्दकर्म-धातुओं के णिजन्त प्रयोग की स्थिति का बोध करना चाहिए । भाष्य में पाँच उदाहरण दिये गये हैं-(१) अजां नयति ग्रामम् । (२) भारं वहति ग्रामम् । ( ३ ) भारं हरति ग्रामम् । गत्यर्थक-(४) गमयति देवदत्तं ग्रामम् । ( ५ ) याययति ( भेजता है ) देवदत्तं ग्रामम् । ग्राम अकथित कर्म है । कैयट १. "क्रियायाः साध्यत्वात्प्राधान्यं तदर्थत्वात्प्रवृत्तेः । कारकाणां गुणत्वम् ।
-कैयट २, पृ० २६४ २. 'नीवह्योहरतेश्चापि गत्यर्थानां तथैव च ।
द्विकर्मकेषु ग्रहणं द्रष्टव्यमिति निश्चयः ॥ --भाष्य २, पृ० २७०
३. वास्तव में हेलाराज ने सर्वप्रथम 'तथैव च' के अन्तर्गत इन धातुओं को रखने का परामर्श दिया था। ( वा० ५० ३७१७२ व्याख्या द्रष्टव्य-)-'गत्यर्थग्रहणेन गतिबुद्धीत्यादिना येषां द्विकर्मकत्वं ते लक्ष्यन्ते । तथैव चेत्यनेनानुक्तसमुच्चयार्थेन जयत्यादयो गृह्यन्ते'।