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कर्म-कारक
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से विशिष्ट स्थिति में उत्पन्न होनेवाली कर्मसंज्ञा ही द्वितीया को जन्म दे सकती है । तात्पर्य यह है कि उक्त स्थिति में चैत्र के कर्मत्व के वारण के लिए नैयायिकों को 'परसमवेत' जैसा विशेषण लगाना पड़ता है, किन्तु पाणिनीय व्याकरण में परसूत्र में आने वाली कर्तृसंज्ञा ही कर्मसंज्ञा का वारण कर देगी । ' आकडारादेका संज्ञा' ( पा० १।४।१ ) के अनुसार कारकादि के अधिकारों में एक ही संज्ञा एक बार में हो सकती है -- दो संज्ञाओं की युगपत्प्राप्ति सम्भव नहीं है । समान शब्दों का पृथक् प्रयोग करके उनमें विभिन्न कारकों की व्यवस्था की जा सकती है, यदि उनके अवच्छेदक ( विशिष्ट अर्थ में नियमन करनेवाले तत्त्व ) भी भिन्न हों । इसीलिए 'आत्मानमात्मना हन्ति' में शरीररूप अवच्छेदक मानकर कर्मसंज्ञा तथा मनोरूप अवच्छेदक मानकर करणसंज्ञा की व्यवस्था करते हुए एक ही 'आत्मन्' को विभिन्न रूपों में लिया जा सकता है ।
कुछ उदाहरणों के द्वारा कर्म की फलाश्रयता का बोध हो सकता है । 'ओदनं पचति' में धातु का फल है - विक्लित्ति ( अन्न की कोमलता ) | यह विक्लित्ति ओदन में है, अतः वह कर्म है । 'घटं करोति' में धातु-फल उत्पत्ति है, इसका आश्रय घट है । धातु के द्वारा फल और व्यापार दोनों ही उपात्त होते हैं, किन्तु व्यापार का आश्रय तो कर्ता होता है । कर्ता के अधिकार क्षेत्र में चूंकि कर्म नहीं आ सकता, अतः कर्मसंज्ञा उपपन्न करने के लिए व्यापाराश्रयरूप कर्तृत्व का अनवकाश होना आवश्यक है, अन्यथा परवर्तिनी कर्तृसंज्ञा कर्म को सावकाश (, लब्धप्रसर ) होने नहीं देगी ।
'घटं जानाति' इस वाक्य में ज्ञा-धातु का फल है - आवरण ( अज्ञान ) का नाश, जिसका आश्रय घट है; अतः वह कर्म है । आवरण भंग के रूप में धात्वर्थ- फल मानने पर कठिनाई भी है । वह यह कि वर्तमान काल में होनेवाले ज्ञान में तो घट के आवरण का नाश सम्भव है, किन्तु अतीत तथा अनागत काल वाले ज्ञान की दशा में यह कैसे सम्भव है ? घट की उत्पत्ति के पूर्व या नाश के अनन्तर जो घट की परोक्षता रहती है वहाँ आवरण भंग का प्रश्न नहीं उठता, तब वैसी स्थिति में 'यथापूर्वं घटं जानाति' का प्रयोग कैसे हो सकता है ? इसका समाधान नैयायिकों तथा सांख्यों ने किया है । नैयायिकों के अनुसार अतीतादि कालों में आश्रयता की उपपत्ति विषयसम्बन्ध मानकर की जाती है । घट चूंकि ज्ञान का विषय है अतः उसी सम्बन्ध से आवरण- भंगरूप फल का आश्रय होता है । वह भूतकाल में हो या भविष्यत् मेंविषयता की वृत्ति सर्वत्र है । दूसरा उपाय सत्कार्यवाद का है, जिसमें यह कहा गया
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१. 'न ह्येतदेव द्वितीयाप्रयोजकं किन्तु संज्ञान्तराभावविशिष्टे जायमाना कर्मसंज्ञैव । इह च परया कर्तृसंज्ञया बाधेन कर्मसंज्ञाया अप्रवृत्तेर्न द्वितीया' ।
- वै०
० भू० पृ० ९९
धातूपात्तव्यापारवत्त्वरूप कर्तृत्वविरहिणो
२. 'कर्मसंज्ञायास्तु घटं करोतीत्यादी घटादेरेव विषयत्वान्नावकाशता' |
- वं० भू०, पृ० ९९
३. 'अतीतादावपि ज्ञानादेर्विषयतासम्बन्धेन वृत्तिस्वीकारे च तद्वदेवावरणतद्भङ्गयोरपि वृत्तिः सुवचैवेति सत्कार्यवादानालम्बेऽप्यदोषाच्चेति' ।
- वहीं