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कर्म-कारक
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( तत्त्वचिन्तामणि, कारकचक्र इत्यादि ) भी पूर्वपक्ष के रूप में निर्दिष्ट है। नव्यवैयाकरणों ने भी कर्मविषयक न्यायमत का प्रतिपादन करते हुए इसकी चर्चा की है । करण-कारक के व्यापार का विषय होने का अर्थ है कि कर्म-कारक करण से उत्पन्न होनेवाली क्रिया के अनुकूल व्यापार का विषय है। 'दात्रेण धान्यं लुनाति' (हँसुए से धान काटता है ) इस उदाहरण में दात्र करण है, उससे उत्पन्न होनेवाली लवन ( छेदन ) क्रिया के अनुकूल संयोगरूप व्यापार का आश्रय धान्य है, अतः वह कर्म है । क्रियानुकूल व्यापार का करण-जन्य होना अनिवार्य है, अन्यथा उक्त व्यापार का आश्रय न केवल कर्म ही होगा, प्रत्युत करण एवं कर्ता को भी यह सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा । कर्म के अतिरिक्त करण ( दात्र ) तथा कर्ता इन दोनों में तो क्रियानुकूल व्यापार रहता है । 'करणजन्य' विशेषण लगा देने से यह अतिव्याप्ति समाप्त हो जायगी, क्योंकि करणजन्य संयोगादि व्यापार केवल कर्म में ही रहता है ।
इस लक्षण में सबसे प्रधान दोष यह है कि किसी दूसरे करण से उत्पाद्य क्रिया व्यापार के आश्रय प्रस्तुत करण में भी अतिव्याप्त हो जाता है। 'दात्रेण धान्यं लुनाति' में छेदन-क्रिया के अनुकूल हस्त ( करण ) से उत्पाद्य ( हस्तसंयोगरूप ) व्यापार का आश्रय तो दात्र भी है । उसे भी कर्म मानना पड़ेगा।
(२) क्रियाजन्यफलशालित्वं कर्मत्वम् - कर्म का यह लक्षण प्राचीन नैयायिकों के नाम से अनेकत्र निर्दिष्ट है । यद्यपि भवानन्द इसका उल्लेख अपने कारकचक्र में नहीं करते तथापि व्युत्पत्तिवाद में गदाधर इसका विस्तृत विवेचन करते हैं, किन्तु अन्त में 'इति प्राचीनपथपरिष्कारप्रकारः' कहकर इससे अपनी अरुचि प्रदर्शित करते हुए दूसरे लक्षण को स्वीकार्य समझते हैं ( पृ० १२६-९) । वैयाकरणभूषण में नैयायिकों के मत के रूप में ( पृ० १०१ ) तथा परमल घुमञ्जूषा ( पृ० १७६ ) में तार्किकों के पूर्वपक्ष से यह लक्षण उद्धृत है । नव्यन्याय के कारक-विषयक प्रतिनिधिग्रन्थ व्युत्पत्तिवाद में द्वितीयाकारक-प्रकरण के प्रारम्भ में विवेचन होने के कारण इस लक्षण को लोग सभी नैयायिकों के द्वारा सम्मत लक्षण समझते हैं। इसमें सत्य का अंश इतना ही है कि नव्यन्याय में कर्म-विवेचन की आधारशिला यही है। धातु का अर्थ व्यापार मानते हुए क्रिया का बोध भी धातु से किया जाता है । अतएव धात्वर्थरूप व्यापार से उत्पाद्य फल ( संयोगादि ) धारण करनेवाले अर्थात् उसके आश्रय को कर्म कहते हैं । 'ओदनं पचति' इत्यादि उदाहरणों में इसका संघटन सम्यक प्रकार से हो सकता है। ___ गदाधर ने इस लक्षण का पूर्ण विश्लेषण करके प्राचीन आचार्यों के प्रति श्रद्धा
१. करणव्यापारवत्त्वम्; कारकचक्र में व्यापार्यत्वम्; कारकवाद में व्यापारित्वम् - इस प्रकार पाठभेद भी हैं।
-प० ल० म०, पृ० १७५ २. 'तच्च दात्रेण लुनातीत्यादी हस्तादिकरणव्यापार्ये दात्रेऽतिव्याप्तम् ।
—कारकचक्र, पृ० १९