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कर्म-कारक
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नव्य-नैयायिकों के सिद्धान्त के रूप में विवेचित है। वैयाक र गभूषण तथा मञ्जूषाओं में भी खण्डन के लिए इसका उद्धरण दिया गया है।
प्रत्येक धातु में कुछ-न-कुछ शक्ति अवश्य रहती है। उस शक्ति को धात्वर्थता कहते हैं, यह धातु से जन्य उपस्थिति विषयक विशेष्यता है। उसे निरूपित करनेवाले व्यापार ( धात्वर्थतावच्छेदक ) को यहाँ विशेषण के रूप में लाया गया है। धात्वर्थरूप विशेष्य का विशेषण अर्थात् 'फलामच्छिन्न व्यापार' के रूप में स्वीकृत धात्वर्थ का विशेषण फल है । धात्वर्थ को फलानुकूल या फलावच्छिन्न व्यापार के रूप में स्वीकार करने से धात्वर्थतावच्छेदक के स्थान पर केवल 'धात्वर्थ' कहकर भी काम चलाया जा सकता है, जैसा कि नागेशभट्ट ने लघुमंजूषा में नैयायिकों के मत स्थापन में प्रसंग में उनका उद्धरण देने में किया है।
इस लक्षण से उपर्युक्त अनेक स्थलों की अतिव्याप्ति का परिहार हो जाता है। ऊपर गम् तथा पत्-धातुओं के प्रयोग में पूर्व देश में अतिव्याप्ति ( कर्मत्व की प्रसक्ति ) बतलायी गयी है; इस लक्षण के अनुसार हम कह सकते हैं कि इन धातुओं का अर्थ केवल स्पन्दन नहीं है, प्रत्युत गम्-धातु का फल है-उत्तर-देश-संयोग; इसी में धातुनिष्ठ शक्ति का निरूपण करनेवाली अवच्छेदकला अवस्थित है। पत्-धातु का भी तदनुसार अधोदेश संयोग ही फल है। अतः इन धातुओं के संयोगरूप फल का निवास केवल उत्तरदेश में रहने के कारण पूर्वदेश में अतिव्याप्ति,नहीं होगी। गम् और पत् का वाच्यार्थ संयोगानुकूल व्यापार है, जिसमें 'संयोग' विशेषण है तथा 'व्यापार' विशेष्य । अत. व्यापार में स्थित विशेष्यता का अवच्छेदक विशेषणरूप संयोग ही है, विभाग नहीं । कारण यह है कि विभाग उस धातु का वाच्य नहीं है ।
इसी प्रकार त्यज्-धातु का अर्थ है -विभागानुकूल व्यापार । यहाँ व्यापारनिष्ठ विशेष्यता का अवच्छेदक विभाग है, संयोग नहीं; क्योंकि संयोग धातुवाच्य ( धात्वर्थ ) है ही नहीं। फलतः 'वृक्षं त्यजति खगः' में उत्तरदेश के कर्मत्व का प्रसंग नहीं आता –विभाग का आश्रय वृक्ष है, उसे कर्म होगा ही। हम अपादान के प्रसंग में विवेचन करेंगे कि वृक्ष विभागाश्रय होने पर भी अपादान इसलिए नहीं है कि यहाँ
१. द्रष्टव्य-व्युत्पत्तिवाद, पृ० १३०; प० ल० म०, पृ० १७६ ।
ल० म०, पृ० १२२२ पर संक्षिप्त रूप में कुछ परिष्कृतियों के साथ-'यत्तु परसमवेतक्रियाजन्यधात्वर्थफलाश्रयत्वं कर्मत्वम्' ।
२. 'धात्वर्थतावच्छेदकत्वमिति । फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वमिति वादिनां मतेनेदम् । तथा च तन्मते धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मत्वं द्वितीयार्थः' ।
-वै० भू० सा०, दर्पण, पृ० १४१ ३. 'एवं च संयोगानुकूलव्यापारस्य गमिपत्यर्थत्वात् व्यापारनिष्ठविशेष्यताया अवच्छेदकत्वं विशेषणीभूतसंयोगे एवास्ति, न तु विभागे। विभागस्य धातुवाच्यत्वाभावात्।
-प० ल० म०, ज्योत्स्ना, पृ० १७६ १२सं०