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कर्म-कारक
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आधेयत्व का अन्वय फल में है ( जिसका उपयोग शाब्दबोध में होता है ) तथा भेद का अन्वय सामानाधिकरण्य-सम्बन्ध से व्यापार में है । भेद में प्रकृत्यर्थ तो पहले के समान अन्वित होता है, अत: 'ग्रामं गच्छति चैत्रः' का इस विधि से शाब्दबोध ( न्यायमत से ) होगा --'ग्रामाधेय-फलानुकूल-ग्रामभेद-समानाधिकरणव्यापारवान् चैत्रः' (लघुमञ्जूषा, १२२३ ) । भूषणसारकाशिका इसे दूसरे रूप में रखती है- 'ग्रामवृत्ति-संयोगजनको ग्रामप्रतियोगिकभेदसमानाधिकरणो यो व्यापारस्तदाश्रयश्चैत्रः' (पृ० ३७१)। स्मरणीय है कि ये शाब्दबोध न्यायमत से प्रथमान्तार्थ को मुख्य या विशेष्य रखते हुए दिये गये हैं।
द्वितीयार्थ के इस विश्लेषण से दो कार्य सरलता से परिहार्य हैं.--'चैत्रश्चत्रं गच्छति' की आपत्ति तथा 'चैत्रो द्रव्यं गच्छति', 'मल्लो मल्लं गच्छति', 'चैत्रश्चत्रं न गच्छति' इत्यादि वाक्यों की अनुपपत्ति । प्रथम उदाहरण में चैत्ररूप आधेय 'भेद' की उपपत्ति नहीं होने से ( क्योंकि दोनों एक ही हैं ) कर्मत्व की व्यवस्था नहीं होती तथा इसीलिए उक्त प्रयोग शुद्ध नहीं है। हाँ, उसके अनुकरणरूप होने में कोई दोष नहीं। बाद के दो उदाहरण भेद की व्यवस्था करते हैं, अतः उनमें कर्म-प्रत्यय लगाने में कोई दोष नहीं ( द्रव्य तथा मल्ल कर्म हैं )।
जहाँ तक 'चत्रश्चत्रं न गच्छति' इस निषेध-वाक्य का प्रश्न है, पूर्वपक्ष से यह कहा जा सकता है कि चैत्र में स्थित जो 'चैत्र से भिन्न (पर ) में समवेत क्रियाजन्य संयोग' का उत्पादक व्यापार है वह प्रसिद्ध या बोध्य नहीं । अतः इस वाक्य को प्रामाण्यकोटि में नहीं रखा जा सकता। किन्तु इसका उत्तर यह है कि नञ् के साथ जहाँ धात्वर्थव्यापार का कथन हुआ है वहाँ 'चैत्र चैत्र से भिन्न है' ऐसी प्रतीति नहीं होती । इसे स्वीकार कर लेने से दोष नहीं होगा। अभावमुख से कर्मप्रवृत्ति होती है तथा शाब्दबोध भी सम्भव है । 'चैत्रश्त्रत्रं न गच्छति' में चैत्रस्थ भेद-प्रतियोगित्व अवच्छेदक नहीं है, ऐसी प्रतीतिमात्र होती है, जब कि 'मैत्रश्चत्रं न गच्छति' में इसकी प्रसिद्धि ही है।
लघुमञ्जूषा इस परिष्कृत कर्मलक्षण (द्वितीयार्थ-निरूपण ) का प्रत्याख्यान करती है । 'चैत्रश्चैत्रं गच्छति' में चैत्र की कर्मत्वापत्ति का वारण तो पर-सूत्र द्वारा
१. 'तत्र क्रियाफलस्य धातुनैव लाभादाधेयत्वं भेदश्च द्वितीयार्थः। तत्र फले आद्यान्वयोऽन्त्यस्य सामानाधिकरण्येन व्यापारे'।
-ल० म०, पृ० १२२३ २. 'तहि क्रियान्वयिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वं द्वितीयार्थः । भेदे प्रकृत्यर्थस्य आधेयतयाऽन्वयान पूर्वोक्तापत्त्यनुपपत्ती'।
-भू० सा० दर्पण, पृ० १४२ ३. "नसमभिव्याहारे धात्वर्थव्यापारे चैत्रवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावस्य भानोपगमेनादोषात् । “एवं च 'चैत्रश्चत्रं न गच्छति' इत्यतः चैत्रवृत्तिभेद-प्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाववान् यः चैत्रवृत्तिसंयोगानुकूलो व्यापारस्तज्जनककृतिमांश्चत्र इति बोध इत्याहुः"।
--प० ल० म०, ज्योत्स्ना, पृ० १७७