________________
१६२
संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
विहित कर्तसंज्ञा ही कर देगी, अतः भेद में शक्ति की कल्पना करना व्यर्थ बात बढ़ाना है । नागेश कहते हैं कि यदि हम 'द्वितीयार्थ में वर्तमान भेद की प्रतियोगिता के अवच्छेदक' व्यापार को 'द्वितीयार्थरूप आधेयत्व से अन्वित' फल का हेतु माने अर्थात् उक्त रूप से विशिष्ट व्यापार तथा फल के बीच कार्यकारणभाव स्वीकार करें तो भेद को शक्ति मानने की आवश्यकता ही नहीं रहे । फल से अन्वय किये जाने के आग्रह से नैयायिक लोग भी आवश्यक कार्यकारणभाव में उक्त रूप से विशिष्ट व्यापार का समावेश करते ही हैं, अतः कल्पना-गौरव का दोष उनके सिर भी पड़ेगा। इसके अतिरिक्त नैयायिक भेद-शक्ति मानकर सामानाधिकरण्य के बल पर उक्त फल-प्रकारक बोध के लिए धातुजन्य व्यापारोपस्थिति को कारण मानते हैं। इससे उनको हमारे कार्यकारणभाव के अतिरिक्त एक दूसरा कार्यकारणभाव मानना पड़ता है जो भेदशक्ति (कारण ) तथा व्यापार ( कार्य ) के मध्य सम्बन्ध रखता है। स्पष्ट है कि उनका कल्पनागौरव-दोष अत्यन्त सुदृढ़ है।
'चैत्रमैत्रौ परस्परं गच्छतः' में उक्त न्यायमत तथा नागेश के विचारों में समता है। नैयायिक जिस प्रकार चैत्र और मंत्र का परस्पर-पदार्थ में भेद स्वीकार करते हैं नागेश भी उसी प्रकार परस्पर-पदार्थ में सव्यापार भेद की सत्ता मानते हैं। परस्पर शब्द दोनों का प्रतिनिधि है । 'चैत्रो मैत्रं गच्छति' तथा 'मैत्रश्चैत्रं गच्छति' इन दोनों का संयुक्तरूप उक्त वाक्य में आता है। यहाँ द्वितीयान्तार्थ में वर्तमान अन्योन्याभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक व्यापार है, जिसे संक्षेप में भेद कहा जा सकता है।
नागेश को न्यायमत में अन्य असंगतियाँ भी दिखलायी पड़ती हैं; जैसे-'घटं जानाति' में द्वितीया न हो सकना । उक्त प्रकार से कर्मत्व की सत्ता यहाँ नहीं है, क्योंकि सविषयक धातु में वह लक्षण अप्राप्त है। आधेयता तथा भेद को द्वितीयार्थ मानने से 'घटाधेयफलानुकूल-घटभेद-समानाधिकरण-व्यापारवान्' ऐसा बोध होगा, जिसमें स्पष्ट असंगति है। नैयायिक कह सकते हैं कि जब शक्ति से काम नहीं चलता तब विषयत्व में लक्षणा मान लें। किन्तु यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि जब 'कर्म में ही द्वितीया है' इस प्रकार के नियमों की स्थिति है तब कर्म से अन्य दशा में शक्ति से या लक्षणा मानने से भी साधुत्व की व्यवस्था नहीं होगी। इसी कारण प्राचीनों की प्रसिद्ध उक्ति है कि सुप् की विभक्ति में लक्षणा नहीं चलती । 'वैकुण्ठमधितिष्ठति' इत्यादि वाक्यों में स्थित वैकुण्ठादि शब्द किसी भी स्थिति में उक्त लक्षण से व्याख्येय
१. 'तन्न, परया कर्तसंज्ञया बाधेन तत्प्रयोगापत्तेरसम्भवेन भेदे शक्तिकल्पनस्य व्यर्थत्वात्।
-ल० म०, पृ० १२२४ २. 'किञ्च द्वितीयाधियत्वान्वितफलप्रकारक-बोधं प्रति द्वितीयान्तार्थवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकव्यापारोपस्थितेर्हेतुत्वकल्पनेन तद्वारणात्' ।
-वही ३. ल० म०, कलाटीका, पृ० १२२४ । ४. ल० म०, पृ० १२२५ ।