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कर्म-कारक
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तम के समान ही क्रिया से युक्त ) की संघटना दिखलाने के लिए तथा भाष्य के 'हि अन्यत्करिष्यामीत्यन्यत्करोति तदुदाहरणम्' इस वाक्य की संगति के आग्रह से 'ओदनं भुञ्जानः' यह अंश भी जोड़ दिया गया है । जिस प्रकार भोजन- क्रिया से सम्बद्ध ओदन (ईप्सिततम होने से ) कर्म है उसी प्रकार उसी क्रिया से सम्बद्ध विष अनीप्सित कर्म है । अन्य कार्य करते हुए अन्य कार्य करने का अर्थ है । 'ग्रामं गच्छन् तृणं स्पृशति' में भिन्न क्रियाएँ हैं तथा तृण अनीप्सित ( उदासीन ) कर्म है । हेलाराज ऐसे उदासीन कर्म को भी ईप्सित सिद्ध करते हैं कि ये तृण-वृक्षमूलादि पहले से अनीप्सित होने पर भी उस समय स्पर्श-वेला में ईप्सित ही हैं, नहीं तो स्पर्शन-क्रिया के विषय नहीं हो सकते थे । श्रम - परिहार के लिए या मनोविनोद के लिए इन तथाकथित अनीप्सित वस्तुओं को उन उन क्रियाओं से व्याप्त किया जाता है, जिससे ये भी ईप्सित ही हो जाती हैं ' ।
दार्शनिक दृष्टिकोण से ईप्सित तथा अनीप्सित का भेद मिटाने पर भी व्यवहारतः पाणिनि-तन्त्र में सभी आचार्यों ने इनका भेद स्वीकार किया है । मुख्यतः इन्हीं दो सूत्रों पर कर्म का विशाल प्रासाद निर्मित हुआ है । यद्यपि पाणिनि ने अन्य कई सूत्रों के द्वारा भी कर्मसंज्ञा का विधान किया है ( जिन्हें हम यथास्थान देखेंगे ), तथापि परवर्ती विचारक अपना सारा ध्यान ईप्सिततम-सूत्र पर तथा कुछ अंशों तक अनीप्सित विवेचन पर केन्द्रित किये जा रहे हैं ।
न्यायदर्शन में कर्म-विवेचन
पिछले एक अध्याय में हम कह चुके हैं कि कर्म का सम्बन्ध धात्वर्थ- फल से होता है । कर्म को सकर्मक क्रिया से सम्बद्ध तथा उसके द्वारा उत्पाद्य फल का आश्रय मानने वाले बीज-लक्षण पर कर्म के सभी परवर्ती लक्षण आश्रित हैं । क्रिया के फल की चर्चा पाणिनि ने ही 'स्वरितत्रितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले ' ( १।३।७२ ) सूत्र में किया है, किन्तु वहाँ उसका लौकिक प्रयोग है कि जिस प्रधान फल के लिए क्रिया का आरम्भ होता है; जैसे स्वर्गफल के लिए यजन - क्रिया, यह फल प्रायः आकालिक या दूरवर्ती होता है । किन्तु धात्वर्थ - विवेचन में फल का यह शिथिलार्थ त्याग कर पारिभाषिक अर्थ ग्रहण किया गया है । इस शास्त्रीय अर्थ में फल वह है जो उस धातु के अर्थ ( व्यापार ) से जन्य हो तथा कर्तृवाचक प्रत्यय के सामीप्य में उस धातु के अर्थ के प्रति विशेषण हो । हम जानते हैं कि 'पचति' क्रिया का फल विक्लित्ति ( अन्नमार्दव ) है | यह पाकक्रिया के द्वारा उत्पन्न होने योग्य है । पुनः कर्तृवाचक लिप् प्रत्यय के सामीप्य में धात्वर्थं का विशेषण भी यह हो सकती है, जिससे 'विक्लित्ति
निका (विशेषण) क्रिया ( विशेष्य )' ऐसा अर्थबोध होता है । यह ध्यातव्य है कि कर्मवाचक प्रत्यय के सामीप्य में फल विशेष्य हो जाता है, विशेषण नहीं रहता ।
१. द्रष्टव्य - हेलाराज ३।७।८० पर, पृ० २९७ ।
२. प० ल० म०, पृ० ८५ ।