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संस्कृत व्याकरण में कारक तस्वानुशीलन
व्यापारतावच्छेदकसम्बन्धेन तद्भात्वर्थनिष्ठविशेष्यता -निरूपित प्रकारतानाश्रय-तद्धात्वर्थाश्रये वर्तते । इसके आगे नागेश कहते हैं कि उक्त रूप में किसी धात्वर्थ का आश्रय होना स्वातन्त्र्य या कर्तृत्व है । इस परिष्कार में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं
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(१) किसी विशेषण, प्रकारादि से रहित विशुद्ध धात्वर्थ का आश्रय होने से ही स्वातन्त्र्य का उपभोग कोई कर सकता है, जिसमें चेतन-अचेतन का भेद-भाव बिलकुल नहीं रहता । । इस दृष्टि से नागेश पतंजलि के घोर समर्थक हैं, जिनके अनुसार स्थाली में स्थित यत्न का कथन यदि पच्-धातु के द्वारा हो रहा हो तो स्थाली भी स्वतन्त्र है ( 'स्थालस्थे यत्ने पचिना कथ्यमाने स्थाली स्वतन्त्रता' ) । इस प्रकार धातु के द्वारा व्यापार का अभिधान होना स्वातन्त्र्य का लक्षण है, जिसे प्रकारान्तर से धातु के अर्थ ( व्यापार ) का आश्रय भी कहा जाता है। किसी वस्तु के अभिधान ( प्राधान्यद्योतन ) के कई साधन व्याकरण में पाये जाते हैं ( जैसे - तिङ्, कृत्, तद्धित, समास तथा निपात ), जिनका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं। 'स्थाली पचति, रामो गच्छति' आदि में धातु तिङ् प्रत्यय के माध्यम से स्थाली, रामादि को अभिहित करता है, अतः उसकी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण है ।
( २ ) व्यापारतावच्छेदक सम्बन्ध --- धात्वर्थ का आश्रय कोई पदार्थ कई प्रकारों या सम्बन्धों से होता है; जैसे कालिक, दैशिक आदि सम्बन्ध । कोई क्रिया किसी काल या देश में ही घटती है, अतः धात्वर्थ का आश्रय काल या देश भी होने के कारण उनके कर्तृत्व की आपत्ति हो जायगी ( 'कालो हि जगदाधारः कालाधारो न कश्चन' ) । प्रकृत विशेषण इस आपत्ति का वारण करता है, क्योंकि केवल व्यापार-सम्बन्ध के आधार पर ही धात्वर्थ का आश्रय कर्ता होता है, कालिकादि सम्बन्धों के आधार पर नहीं । 'घटो भवति' में घट का व्यापार है, काल के व्यापार का निर्देश बिलकुल नहीं है कि वह कर्ता हो सके। इसमें कोई सन्देह नहीं कि काल के व्यापार का निर्देश किया जाने पर उसके कर्ता होने में आपत्ति नहीं; जैसे -- ' काल: पचति भूतानि' । किन्तु ऐसा शब्दतः निर्देश होना चाहिए ।
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स्वातन्त्र्य के लक्षण में प्रयुक्त यह विशेषण एक अन्य शंका का भी समाधान करता है । प्रायः यह धारणा देखी जाती है कि जब क्रिया सामग्री के द्वारा निष्पन्न की जाती है तब प्रत्येक साधन की ही अपने-अपने व्यापार में स्वतन्त्रता होती है । इसलिए 'स्वतन्त्रः कर्ता' सूत्र में स्वतन्त्र शब्द अनन्य रूप से कर्ता का ही लक्षण हैयह मानना युक्तियुक्त नहीं । किन्तु व्यापारतावच्छेदक सम्बन्ध से जब हम धात्वर्थाश्रय को स्वतन्त्र कहते हैं तब एक बार में किसी एक पदार्थ को ही स्वतन्त्र कहा जा सकता है, क्योंकि धातु के द्वारा उसी पदार्थ का व्यापार व्याप्त हो सकता है – युगपत् सभी साधनों के व्यापार व्याप्त नहीं होंगे । जिस साधन के व्यापार को अभिहित किया
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१. ० म०, पृ० १२४२ ।