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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
( धात्वर्थ ) सुरक्षित रहता है, वहीं दूसरी ओर कर्मत्व भी अक्षुण्ण रहता है। इसी सामंजस्य के कारण कर्म-शब्द के प्रयोग में तथाकथित भ्रान्ति हो जाती है-कहीं क्रिया के अर्थ में तो कहीं कार्य के अर्थ में इसके प्रयोग समान लेखनी के समान कृति में हो सकते हैं । किन्तु वास्तव में यह भ्रान्ति नहीं है--कर्म-शब्द चाहे 'भावे' प्रयुक्त हो या 'कर्मणि', दोनों का लक्ष्य उपर्युक्त प्रकार से समान ही होता है । स्वयम् आचार्य पाणिनि ने कर्म का लक्षण कार्य के व्यापक अर्थ में व्यवस्थित करके भी इसके प्रयोग क्रियारूप अर्थ में भी किये हैं; जैसे-कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम् ( ३।३।४३ ),' कर्माध्ययने वृत्तम् ( ४।४।६३ ),२ गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च (५।१।१२४ ), आदिकर्मणि क्तः कर्तरि च ( ३।४।७१ )४ इत्यादि ।
कर्ता का ईप्सिततम पाणिनि के द्वारा दिये गये कर्मलक्षणों में स्थान तथा महत्त्व की दृष्टि से प्रथम है-'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' ( १।४।४९ ) । कारकाधिकार में पठित इस सूत्र में क्रिया का प्रयोग न होने पर भी उसका बोध तो अवश्य ही होगा। अतः क्रिया की सहायता से कर्ता को जिसे प्राप्त करना ( उपलब्ध या स्वसम्बद्ध करना ) सर्वाधिक अभीष्ट हो वह कारक कर्मसंज्ञक है; जैसे- 'कटं करोति' में कट ( चटाई ) अथवा 'ग्राम गच्छति' में ग्राम । 'ईप्सिततम"शब्द में निहित आप्-धातु का आश्रय लेकर दूसरे सम्प्रदायों में कर्तृव्याप्य ( हेमचन्द्र ), क्रियाप्य ( चान्द्र ) या क्रियाव्याप्य ( सुपद्म)जैसे शब्दों का प्रयोग कर्मलक्षण में किया गया है। किन्तु कर्ता या क्रिया के द्वारा कर्म के व्याप्य होने में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं आता । वास्तव में तो कर्म क्रिया के १. 'कर्म क्रिया, व्यतिहारः परस्परं करणम्' ।
-काशिका २. 'एकमन्यदध्ययने कर्म वृत्तमस्य एकान्यिकः ।' यस्याध्ययने नियुक्तस्य परीक्षाकाले पठतः स्खलितमपपाठरूपमेकं जातं स उच्यते एकान्यिक इति' । अर्थात् स्खलनक्रिया के अर्थ में कर्मशब्द है ।
-काशिका ३. 'कर्मशब्द: क्रियावचनः । जडस्य भावः कर्म वा जाड्यम्'--काशिका। यहाँ भाव तथा क्रिया में भेद दिखलाया जाता है, शब्द के प्रवृत्तिनिमित्त को भाव कहा गया है, जिससे वस्तु का नामकरण या ज्ञान हो; क्रिया के अवस्था-विशेष को भाव नहीं कहा गया है, अन्यथा सूत्र में 'कर्मणि' कहने की आवश्यकता ही नहीं थी। द्र० काशि० ५।१।११८- 'भवतोऽस्मादभिधानप्रत्ययाविति भावः । शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं भावशब्देनोच्यते' । ( गोर्भावः गोत्वम् )। ४. 'आदिभूतः क्रियाक्षणः कर्म' ।
-काशिका ५. आप् + सन्+क्त । 'आप्ज्ञप्यधामीत्' ( ७।४।५५ ) से ईत्त्व; 'अत्र लोपोऽभ्यासस्य' ( ७।४।५८ ) से अभ्यासलोप; 'मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च' ( ३।२।१८८) से मति ( इच्छा ) के अर्थ में वर्तमानार्थक क्त-प्रत्यय । तमप ( ५।३।५५ )। 'क्तस्य च वर्तमाने' ( २।३।६७ ) से 'कर्तुः' में षष्ठी ।