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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
प्रयोजक के आदेश की पूर्ति हो पाती है । कुछ लोग प्रकारान्तर से प्रयोज्य की क्रिया के द्वारा व्याप्य कर्म की सिद्धि करते हैं । उनके अनुसार प्रयोजक की अपेक्षा रखते हुए ( उसके सम्बन्ध से ) प्रयोज्य का अनीप्सित पदार्थ भी कर्म कहलाता है । किन्तु यह दूषित मत है, क्योंकि जहाँ प्रयोजक का व्यापार शब्दार्थ के रूप में नहीं हो ( जैसे - 'कटं करोति' में ) वहाँ यह मत अनुपयुक्त हो जायेगा । निष्कर्ष यह निकलता है कि-क्रिया के साथ कर्म भी ईप्सित होता है । दोनों के समान रूप से ईप्सित होने की स्थिति में भी क्रिया को तो कारक नहीं कहा जा सकता - उस क्रिया के द्वारा व्याप्य होने के कारण कर्म ही कारक है जिसका उपर्युक्त लक्षण निर्विवाद है ।
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अनीप्सित का कर्मत्व
पाणिनि एक दूसरे सूत्र - तथायुक्तं चानीप्सितम् ' ( १|४|५० ) के द्वारा कर्ता की अनीप्सित वस्तु की भी कर्मसंज्ञा मानते हैं, यदि वह ईप्सिततम के समान क्रिया से युक्त हो । अनीप्सित शब्द में नञ् के प्रयोग के कारण दो अर्थों की सम्भावना है
(१) प्रसज्य प्रतिषेध - इसमें किसी वस्तु का विधान करके ( प्रसज्य ) उसका निषेध किया जाता है । जैसे- - न गच्छेत् । इसमें विध्यात्मक अर्थ गौण तथा निषेध मुख्य है । अनीप्सित का अर्थ 'न ईप्सित' करें तो यह प्रसज्यप्रतिषेध होगा । इसके अनुसार द्वेष्य पदार्थ मात्र को अनीप्सित कहेंगे, क्योंकि द्वेष्य का ही ईप्सित से साक्षात् विरोध है
( २ ) पर्युदास २ -- इसमें विध्यात्मक अर्थ प्रधान रहता है तथा निषेध्य वस्तु से भिन्न समस्त सदृश पदार्थों का विधान होता है; जैसे - अब्राह्मणो गच्छति ( = ब्राह्मण के सदृश कोई दूसरा जाता है ) । तदनुसार अनीप्सित का अर्थ है -- ईप्सित से भिन्न चाहे वह द्वेष्य हो या उदासीन । भाष्यकार इसी अर्थ को स्वीकार करते हुए 'ईप्सित से भिन्न' के अन्तर्गत मुख्य रूप से उदासीन की ही कर्मसंज्ञा मानते हैं, जो न ईप्सित है, न अनीप्सित ( द्वेष्य ) 3 | जैसे - ग्रामान्तरं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति । कुड्यमूलान्युपसर्पति ( दूसरे गाँव में जाते हुए वृक्ष तथा दीवाल के नीचे जाता है ) । वृक्षमूल तथा कुड्यमूल उदासीन कर्म हैं, क्योंकि न तो ये ईप्सित हैं, न अनीप्सित ही । तथापि द्वेष्य पदार्थ की भी कर्मसंज्ञा भाष्यकार को स्वीकार है, जिसे उन्होंने इसके पूर्व ही प्रदर्शित किया है— ग्रामान्तरं गच्छन् चोरान्पश्यति, अहिं लङ्घयति, कण्टकान्
१. 'अप्राधान्यं विधेयंत्र प्रतिषेधे प्रधानता । प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नव्' || २. 'प्राधान्यं हि विधेर्यत्र प्रतिषेधेऽप्रधानता ।
को०, पृ०५८४
पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नव्' ॥
- वहीं, पृ० ४९१
३. 'पर्युदासोऽयम् । यदन्यदीप्सितात् तदनीप्सितमिति । अन्यच्च एवेदमीप्सिताद् यन्नैवेप्सितं नाप्यनीप्सितमिति' ।
- भाष्य २, पृ० २६३
-न्या०