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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
ईप्सित तथा ईप्सिततम की विभिन्नता के कारण ही 'पुष्पाणि स्पृहयति' तथा 'पुष्पेभ्यः स्पृहयति' इन दोनों प्रयोगों की उपपत्ति होती है । स्पृह-धातु के प्रयोग में ईप्सित वस्तु को सम्प्रदान-संज्ञा होकर पिछले प्रयोग की सिद्धि होती है। यदि ईप्सित का प्रकर्ष या अतिशय विवक्षित हो तो प्रथम उदाहरण में प्रदर्शित कर्मत्व भी हो सकता है।
ईप्सिततम का पतञ्जलि द्वारा विवेचन पतञ्जलि एक रोचक उदाहरण देकर ईप्सिततम का विवेचन करते हैं। पूर्वपक्ष में अन्वय-व्यतिरेक से ओदन की अपेक्षा दधि-दुग्ध आदि को ईप्सिततम बतलाया गया है कि कोई किसी को आमन्त्रण देता है -मेरे यहाँ आप भोजन कर लीजिए। आमन्त्रित व्यक्ति कहता है कि मैं अभी-अभी भोजन कर चुका हूँ। आमन्त्रणकर्ता पुनः उसे भोजन का आग्रह करते हुए कहता है कि मेरे यहाँ भोजन में दही है, दूध है । तब वह उत्तर देता है -हां, दही-दूध के साथ खा लूंगा ( दध्ना खलु भुञ्जीय, पयसा खलु भुजीय ) । यहाँ दूध-दही को कमसंज्ञा होनी चाहिए, क्योंकि वही भोक्ता का ईप्सिततम है, ओदन नहीं । आमन्त्रणकर्ता के यहाँ केवल ओदन की कल्पना करके वह खाने को प्रस्तुत नहीं है। दूसरी ओर दूध-दही का नाम सुनते ही वह भोजन के लिए प्रस्तुत हो जाता है । स्पष्टतः दूध-दही उसका ईप्सिततम है।
परन्तु ऐसी बात नहीं है । वास्तव में उस व्यक्ति को ओदन ही अभीष्ट है, केवल संस्कारक पदार्थों में उसका आग्रह नहीं है ( न तु गुणेष्वस्यानुरोधः )' । संस्कारक पदार्थ उसी प्रकार गुण ( विशेषण ) का काम करते हैं जिस प्रकार सामान्य विशेषण । जैसे कोई कहे कि मैं ओदन खा सकता हूँ यदि वह मृदु ( कोमल ) तथा विश्. ( गीला नहीं, असंसक्त ) हो । यहाँ व्यक्ति का ईप्सिततम मृदु या विशद गुण नहीं वह खायेगा ओदा ही, किन्तु उसमें अपेक्षित गुणों का आधान चाहता है। कैयट गु । के आदर की असङ्गति दिखलाते हैं कि यदि मृदु-मात्र ईप्सित होता तो वह व्यक्ति पंक भी खा लेता और यदि विशदमात्र में आग्रह रखता तो कदाचित् बालू खाना भी उसे अच्छा लगता । इससे सिद्ध होता है कि उसका अभीष्ट गुण नहीं, गुणी है। यहाँ भी उसका उद्देश्यमूलक प्रयोग होगा- 'दधिगुणमोदनं भुञ्जीय, पयोगुणमोदनं भुजीय' । काशिका में इसीलिए तमप्-ग्रहण के प्रत्युदाहरण में 'पयसा ओदनं भुङ्क्ते' दिया गया है । ईप्सिततम नहीं होने के कारण पयस् कर्म-कारक नहीं है। वैसे ईप्सित तो दोनों ही हैं, किन्तु ईप्सिततम ओदन है।।
१. 'दधिपयसोस्तु संस्कारकत्वात्करणभावः । गुणेषुपकारकेषु केवलेषु नास्यादरः । किं तहि ? तत्संस्कृत ओदन इत्यर्थः' । ( उद्योत-) 'संस्कारकत्वेनैव तद् ( दध्यादि ) उद्देश्यम्, न तु साक्षात्फलाश्रयत्वेनेत्यर्थः । अन्यथा दधिपयोमात्रभोजनेनापि कृती स्यात्।
-महाभाष्यप्रदीप २, पृ० २६१ २. 'यदि मार्दवमात्रे आवरः स्यात्पङ्कमपि भक्षयेत् । विशदमात्रादरे सिकता मापि।