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कर्म-कारक
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द्वारा ही व्याप्त होता है और क्रिया चूंकि कर्ता में निहित होती है, इसलिए कर्ता के द्वारा व्याप्य कहें या क्रिया के द्वारा — दोनों स्थितियाँ समान हैं । यह अवश्य है कि क्रिया कर्म को सीधे व्याप्त करती है, कर्ता उसे क्रिया के द्वारा ही व्याप्त करेगा । इसीलिए काशिकाकार के द्वारा दी गयी वृत्ति में दोनों का एक साथ प्रयोग हुआ है ।
यही नहीं, पाणिनि-सूत्र में 'कर्तुः' के प्रयोग की अपरिहार्यता पर पर्याप्त प्रकाश दिया गया है । क्रिया-शब्द का भले ही अध्याहार कर लिया जाय किन्तु क्रिया का आश्रय अथवा केवल गम्यमान कह देने से कर्तृपद को सेवामुक्त नहीं किया जा सकता । 'माषेष्वश्वं बध्नाति' में इसका योगदान देखा जा सकता है । कोई व्यक्ति अपने अश्व की शरीर - पुष्टि के लिए उसे उड़द ( माप ) की ढेर के पास बाँध देता है कि उड़द खाकर वह पुष्ट हो जाये । यहाँ कर्ता का ईप्सिततम अश्व है, जिसे संज्ञा हुई - कर्ता बन्धन-क्रिया के द्वारा अश्व को व्याप्त करना चाहता है । यदि कर्ता के अतिरिक्त दूसरे कारक के ईप्सिततम को कर्मसंज्ञा होती तो प्रकृत स्थल में अश्व ( कर्म ) के ईप्सिततम 'माप' को भी कर्मसंज्ञा हो जाती । परन्तु चूँकि माप बन्धनकर्ता का ईप्सित नहीं है अतः उसे कर्मसंज्ञा नहीं हुई— इससे 'कर्ता' के प्रयोग की सार्थकता प्रकट है ।
इस सूत्र में तमप्-प्रत्यय ( ईप्सिततम ) का प्रयोग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यदि 'कर्तुरीप्सितं कर्म' इतना ही कहा जाता तो 'अग्नेर्माणवकं वारयति' इस उदाहरण में अग्नि के साथ माणवक को भी अपादान संज्ञा हो जाती । 'वारणार्थानामीप्सित. ' (१।४।२७ ) सूत्र के अनुसार वारणार्थक धातुओं के प्रयोग में ईप्सित वस्तु को अपादानसंज्ञा होती है । माणवक को जैसे अग्नि अभीष्ट है उसी प्रकार वारणकर्ता Sat माणवक अभीष्ट है, क्योंकि वह उसकी रक्षा चाहता है । इसलिए 'ईप्सित' मात्र कहने पर उक्त अपादान -सूत्र की प्रवृत्ति अनिवार्य हो जायगी । यदि उत्तर में यह कहा जाय कि कर्मसंज्ञा पर-सूत्र में आने के कारण अपादान संज्ञा को रोक देगी, तो भी बात बनती नहीं; क्योंकि जिस प्रकार माणवक में अपादान को रोककर कर्म प्रबलतर होता है उसी प्रकार अग्नि में भी अपादान बाधित हो जायगा । यहाँ पर तमप्-प्रत्यय का ग्रहण करने से यह दोष मिट जाता है । वार्तिककार ने कहा भी है कि 'वारणार्थानामीप्सितः' सूत्र में 'कर्मणः ईप्सितम् ' का अर्थ रहने पर भी उसे शब्दतः कहने की आवश्यकता इसलिए नहीं पड़ती कि कर्म के लक्षण में पाणिनि ने 'ईप्सिततम' का प्रयोग किया है २ । फलतः माणवक कर्ता का ईप्सिततम रहने के कारण कर्म है, अग्नि माणवक का ईप्सित रहने से अपादान है ।
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१. कर्तुः क्रियया यदाप्तुमिष्टतमं तत्कारकं कर्मसंज्ञम्' – काशिका, १|४|४९ पुनः द्र० - ' यत्कर्तुः क्रियया व्याप्यं तत्कर्म परिकीर्तितम्' – प्रयोगरत्नमाला ( १।६।२० ) में पुरुषोत्तम विद्यावागीश ।
२. द्रष्टव्य - महाभाष्य २, पृ० २६० ।