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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
__णिजर्थ का अन्तर्भाव यदि सकर्मक क्रिया में हुआ ( जैसा कि उक्त 'पञ्चभिर्हल: कर्षति' में किया जाता है ) और द्वितीय कर्म ( 'भूमि कर्षति' में भूमि ) से रहित प्रयोग दिखलायी पड़े तो प्रयोजक के व्यापार को ही धात्वर्थ ( धातुवाच्य ) मानकर समाधान करना चाहिए । इसकी पुष्टि ब्रह्मसूत्र ( २।४।२० ) के शांकरभाष्य से होती है । शंकर लौकिक प्रयोग देते हैं-'चारेणाहं परसैन्यमनुप्रविश्य सङ्कलयानि' ( गुप्तचर के द्वारा शत्रुसेना के भीतर घुसकर मैं उस सेना की गतिविधि जान लूं)। यह राजा की उक्ति है जो चर के द्वारा ( चर-कर्तृक ) किये गये सैन्य संकलन (क्रिया ) को हेतुकर्ता होने के कारण अपने ऊपर आरोपित करता है, क्योंकि 'संकलयानि' का उत्तमपुरुष-प्रयोग इसी तय का द्योतक है। इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् ( ६।३।२ ) के समानान्तर प्रयोग की व्याख्या की गयी है- 'देवतानेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि' । नाम और रूप को व्याकृत करना ( विश्लेषण ) जीव का काम है, किन्तु देवता हेतुकर्ता होने के कारण उस क्रिया को अपने ऊपर आरोपित करता है । वाचस्पतिमिश्र इस स्थान पर भामती में गुप्तचर तथा जीवात्मा को इसीलिए करण मान लेते हैं कि राजा तथा देवता का व्यापार ( =प्रयोजक-व्यापार ) ही धातुवाच्य है। सिद्धान्ततः प्रयोजक का व्यापार णिच्-प्रत्यय से वाच्य होता है, वह प्रेषणादि व्यापार का संचालन करता है। प्रयोज्य का व्यापार सीधे धातु से वाच्य होता है। वाचस्पति समझते हैं कि संकलन-क्रिया चर ( प्रयोज्य ) से सम्बद्ध नहीं है। चर तो केवल अनुप्रवेश करता है, उसके द्वारा लायी गयी सूचना के आधार पर राजा सैन्य का संकलन करते हैं; जिनका व्यापार उस धात से सीधा वाच्य होता है। इसीलिए चर को करण कहा गया है। नागेश के मतानुसार यहाँ ण्यर्थ का अन्तर्भाव मानें ( 'कलयति' में णिच् स्वार्थ में है, चुरादि-गण है ) तो प्रयोजक ( राजा ) के व्यापार का अभिधान धातु कर सकता है और चर प्रयोज्य हो सकता है।
नागेश के कथन का आशय यह है कि सामान्यतया धातु प्रयोजक के व्यापार को अभिहित करता है, जिसकी स्वतन्त्रता अविच्छिन्न रहती है; यद्यपि वह प्रयोजक के ही अधीन उक्त व्यापार का संचालन क्यों न करता हो । प्रयोज्य स्वेच्छा से क्रिया में प्रवृत्त-निवृत्त होने के कारण स्वातन्त्र्य का द्वितीय लक्षण तो धारण करता ही है, किन्तु कारकचक्र को प्रयोजित करनेवाला प्रथम लक्षण भी उसमें घटित होता हैइसकी सिद्धि नागेश को अभीष्ट है। 'पञ्चभिहलैः कर्षति' आदि वाक्यों में भी प्रयोजक-व्यापार की प्रधान धातुवाच्यता अगतिक गति से ही माननी चाहिए। प्रेरणा से उत्पन्न परतन्त्रता होने पर प्रयोज्य की स्वतन्त्रता उपायरूप हो जाती है तथा धातु से वाच्य क्रियाकृत स्वतन्त्रता उसमें विवक्षित होती है ( प्रयोजक की प्रधानता हो जाने से उस समय वास्तविक स्वतन्त्रता उसमें नहीं रहती)।
'घटो भवति' इस प्रयोग में घट के कर्तृत्व का निरूपण करते हुए नागेश दो अन्य व्याख्याओं के साथ अपनी व्याख्या देते हैं । वे इस प्रकार हैं
१. ल० म०, पृ० १२४७ ।।