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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कृति व्यापार से भिन्न नहीं है ( व्यापार - विशेष ही कृति है ), उनका खण्डन इस विवेचन से हो जाता है । वास्तव में कृति और व्यापार दोनों भिन्न पदार्थ हैं । अथवा यह कहा जा सकता है कि कृति आन्तरिक चेष्टा - विशेष का नाम है, जब कि व्यापार बाह्य चेष्टा है । व्यापार का ज्ञान तो धातु से होता ही है, कृति भी धातुलभ्य है ( नैयायिक कृति को तृतीयार्थ समझते हैं ) । किन्तु केवल कृति ही धात्वर्थ होतो सभी धातुओं को अकर्मक मानना पड़ेगा - यह निरूपित किया गया है । स्वातन्त्र्य का परिष्कृत लक्षण पतञ्जलि के प्रामाण्य पर नागेश ने दो प्रकार से
किया है
( १ ) ' तद्धात्वर्थीयकारकचक्रप्रयोक्तृत्वं स्वातन्त्र्यम्' । धात्वर्थ - विशेष से सम्बद्ध कर्मादि कारकों को अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करनेवाला स्वतन्त्र कर्ता है ।
(२) 'स्वेच्छाधीन प्रवृत्तिनिवृत्तिकत्वं स्वातन्त्र्यम्' । स्वतन्त्र वह है जो अपनी इच्छा के अनुसार क्रिया की निष्पत्ति में प्रवृत्त या निवृत्त हो । उक्त प्रकार की स्वतन्त्रता का उपयोग प्रयोज्य प्रयोजक के समक्ष रहने पर भी करता है, क्योंकि अपने व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रखकर वह स्वार्थ होने पर प्रवृत्त होता है, स्वार्थ नहीं होने पर नहीं ।
उक्त स्वतन्त्रता भी आरोपित तथा अनारोपित के रूप में दो प्रकार की होती है; स्थाली में आरोपित स्वातन्त्र्य है तो पुरुष में अनारोपित । शब्दशक्ति का स्वभाव ही है कि जिसमें वक्ता स्वातन्त्र्य की विवक्षा करता है उसी का व्यापार धातु के द्वारा अभिहित होता है, प्रधानतया प्रकाशित होता है । इसलिए जहाँ पतञ्जलि कहते हैं कि स्थाली स्वतन्त्र है वहाँ उनका अभिप्राय समझना चाहिए कि स्थाली आरोपित स्वातन्त्र्य से युक्त है । कारण यह है कि जब तक स्वातन्त्र्य आरोपित नहीं होता तब तक स्थाली के व्यापार में धातु प्रधानतया प्रवृत्त नहीं हो सकता, उसके व्यापार को प्रकाशित नहीं कर सकता ।
नागेश अपने पूर्वाचार्यों ( दीक्षित, कोण्डभट्ट ) के स्वातन्त्र्य - परिष्कार का खण्डन करना भी आवश्यक समझते हैं । प्रधान धात्वर्थ व्यापार के आश्रय को स्वतन्त्र मानने वाले वे आचार्य नागेश के अनुसार यह नहीं देखते कि कोश या व्याकरण से 'स्वतन्त्र' शब्द का उक्त अर्थ प्रकट नहीं होता । लोक में उपर्युक्त दोनों अर्थों में ही स्वतन्त्र-पद का व्यवहार दिखलायी पड़ता है । इस प्रकार पतञ्जलि तथा नागेश लोकप्रामाण्य पर स्वतन्त्र की प्रतिष्ठा करते हैं, क्योंकि 'स्वतन्त्र' पाणिनि के अनुसार कोई संज्ञा नहीं कि कृत्रिम हो तथा लोकप्रयोग से भिन्न शास्त्रीय दृष्टिमात्र से स्वीकृत हो । 'स्वतन्त्रः कर्ता' कहते हुए पाणिनि यह मानकर चलते हैं कि स्वतन्त्र का अर्थ सभी जानते हैं, लोकप्रयुक्त स्वतन्त्र - शब्द ही लक्षण में गृहीत हुआ है । संसार में उसे ही स्वतन्त्र कहते हैं जो अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करे, चाहे प्रवृत्त हो चाहे
१. ल० म०, पृ० १२४४-५ ।