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कर्तृ-कारक
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जायगा उसे कर्ता कहने में आपत्ति नहीं होती। हम देख चुके हैं कि पतञ्जलि ने इसे राजा और अमात्य का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है।
( ३ ) किन्तु उपर्युक्त सभी स्थितियों के होने पर भी स्वातन्त्र्य की सत्ता तभी होती है जब कर्तप्रत्यय का प्रयोग हो। कर्म तथा भाववाच्यों में कर्तृत्व का निर्णय उनके कल्पित कर्तृवाच्य में धातुव्यापार से अवच्छिन्न पदार्थ को देखकर होता है। ऐसा इसलिए करना पड़ता है कि कर्मवाच्य के फलमुख्यविशेष्यक शाब्दबोध में भी कर्तृत्व की सिद्धि हो सके। हम यह देख चुके हैं कि इस विशेषण ( कर्तप्रत्ययसमभिव्याहार ) का सुझाव हरिदीक्षित के शब्दरत्न में दिया गया है, जिसे नागेश ने भी अपने सम्बद्ध ग्रन्थों में ग्रहण किया है ।
नागेश आगे चलकर बतलाते हैं कि यह कर्तृत्व-शक्ति उसी पदार्थ में निवास करती है जिसमें सम्बद्ध धात्वर्थ की कृति तथा व्यापार दोनों आश्रित होते हैं। नैयायिक लोग जो केवल कृति की आश्रयता में कर्तृत्व मान लेते हैं-वह ठीक नहीं है, क्योंकि गुरुतर भार के ऊपर उठाने में केवल कृति ( प्रयत्न ) की सिद्धि तथा सम्बद्ध व्यापार की असिद्धि होने से कर्तृत्व-व्यवहार नहीं होता । नैयायिक लोग यहाँ कर्तृत्व-व्यवहार के अभाव के लिए सफाई देते हैं कि यहाँ यत्न के होने का कोई प्रमाण नहीं २ । किन्तु भवानन्द के अनुसार इसमें तद्विषयक कृति होने पर भी क्रिया की अनिष्पत्ति के ही कारण कर्तृत्व-व्यवहार नहीं होता । तदनुसार 'तत्तत्क्रियानुकूलकृति को धारण करनेवाले को' स्वतन्त्र मानना पड़ता है । नागेश इसे ही कृति तथा व्यापार-दोनों का आश्रय कहते हैं ।
धात्वर्थ की कृति का विषय उससे साध्य फल को कहते हैं, इसलिए साध्यत्व के रूप में विद्यमान विषयता कृति में ही रहती है । इसके फलस्वरूप भवानन्द के प्रकरण में उद्धृत 'मत्तो भूतं, न तु मया कृतम्' ( मुझसे यह कार्य हो गया, किया नहीं गया ) सिद्ध प्रयोग नहीं रह जाता, क्योंकि जो कार्य यहाँ साध्य होता है वह कृति का विषय नहीं । यह आनुषंगिक स्थिति है कि दूसरे विषय की कृति थी और उसके साथ-साथ दूसरे विषय का कार्य भी सम्पन्न हो गया । भात पकाने की कृति से दाल भी पक गयी । इसमें ऐसा नहीं कह सकते कि दाल पक गयी, मैंने नहीं पकायी। दाल के पकाने का कर्तृत्व भात पकानेवाले में नहीं देखा जा सकता। इसीलिए जो व्यक्ति पीठे में भरी हुई शर्करा ( जब कि दोनों क्रियाएँ अविच्छेद्य कृति से साध्य हैं ) का भक्षण कर रहा है, शर्कराभक्षण का कर्ता नहीं हो सकता । कुछ लोग जो यह समझते हैं कि
१. "एतेन सामग्रीसाध्यायां क्रियायां सर्वेषां स्वस्वव्यापारे स्वातन्त्र्यात् सूत्रे 'स्वतन्त्रः' इत्यव्यावर्तकमित्यपास्तम् । प्रागुक्तस्वातन्त्र्यस्य युगपत्सर्वेष्वभावात्"।
-ल० म०, पृ० १२४२ २. ल० म०, पृ० १२४३ । ३. कारकचक्र, पृ० १६ ।