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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
कारकों का नियमन करने वाला यह प्रधान कर्ता है। अभिहित या अनभिहित होने के कारण इसमें क्रमशः प्रथमा या तृतीया विभक्ति लगती है-रामो गच्छति, रामेण गम्यते । न्यायकोश में इसका लक्षण दिया गया है कि जो प्रेरणार्थक णिच् से भिन्न प्रकृतिवाले धात के द्वारा गृहीत व्यापार का आश्रय हो; जैसे.- देवदत्तः पचति । स्वार्थ णिच् की प्रकृति वाले धातु में भी यही कर्ता होता है; यथा-रामः कथयति । किन्तु प्रेरणार्थक णिच् होने पर धातु और प्रत्यय मिलकर जिसके व्यापार का बोध कराते हैं. वह शुद्ध कर्ता नहीं होता। 'राम: पाचयति' में राम शुद्ध कर्ता नहीं है, हेतुकर्ता है। हाँ, एक मत से प्रयोज्य को अवश्य ही शुद्धकर्ता कहा जा सकता है, क्योंकि वह भी कभी ( अणिजन्तावस्था में ) शुद्धकर्ता ही रहा है।
(२) हेतुकर्ता ( प्रयोजक )--णिजर्थभूत प्रेरणा-व्यापार का आश्रय हेतुकर्ता कहलाता है । यह भी अभिहित होने पर प्रथमा विभक्ति ग्रहण करता है; यथा-राम: पाचयति । यहाँ पाक-क्रिया तथा प्रेरणा-क्रिया-इस प्रकार दो क्रियाएँ 'पाचयति' में अन्तर्भूत हैं। उनमें पाक-क्रिया का आश्रय तो प्रयोज्य ( शुद्ध ) कर्ता है, किन्तु प्रेरणाव्यापार रामरूप हेतु कर्ता में निहित है । अनिभिहित होने पर इसमें भी तृतीया विभक्ति होती है-पाच्यते देवदत्तेन, कार्यते हरिणा । अन्तिम उदाहरण का शाब्दबोध न्यायकोश में उपर्युक्त स्थल में दिया गया है-'हर्य भिन्नाश्रयक उत्पादनानुकूलो व्यापारः' । गुरुपद हाल्दार ने चेतन तथा, अचेतन के भेद से इस हेतुकर्ता के दो भेद किये हैं। चेतन का उदाहरण है-'गृहपतिः देवदत्तेनान्नं पाचयति'। अचेतन का उदाहरण है-'भिक्षा वासयति' । यहाँ भिक्षा की सुलभता है, जिससे प्रवृत्त होकर कोई भिक्षु स्थल-विशेष में निवास कर रहा है। अतः कहा गया है कि भिक्षा उसे निवास की प्रेरणा दे रही है।
जैन वैयाकरणों की परम्परा में हेतुकर्ता के तीन भेद किये गये हैं
(क ) प्रेषक-जब प्रयोजक वरीय तथा प्रयोज्य कनीय हो; जैसे-'यज्ञदत्तः सूपकारणोदनं पाचयति' ।
(ख) अध्येषक-जब प्रयोजक कनीय तथा प्रयोज्य वरीय हो। इसमें आदरपूर्वक आग्रह का भाव रहता है; यथा-'देवदत्तः गुरुं भोजयति । प्रेषण तथा अध्येषण की चर्चा भर्तृहरि ने भी की है।
(ग) आनुकूल्यभागी-जब कोई प्रयोजक अपने प्रयोज्य में मानसिक या भौतिक अनुकूलता उत्पन्न करता है; यथा-'सुपुत्रो जनकं हर्षयति' । यहाँ सुपुत्र अपने पिता में हर्षोदय के द्वारा मानसिक अनुकूलता उत्पन्न करते हुए उन्हें नियुक्त करता है। इस प्रकार का हेतुकर्ता अचेतन पदार्थ भी हो सकता है; यथा- 'कारोषोऽध्यापयति १. 'प्रेरणार्थकणिजप्रकृतिधातूपात्तव्यापाराश्रयत्वमिति यावत्' ।
-न्या० को०, पृ० २०२ २. व्या० द० इ०, पृ० २६७ ।