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कर्तृ-कारक
'प्रेषणाध्येषणे कुवंस्तत्समर्थानि चाचरन् । कर्तव विहितां शास्त्रे हेतुसंज्ञां प्रपद्यते ' ॥
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किसी को आदेश देकर कार्य में प्रवृत्त करना 'प्रेषण' कहलाता है । आदेश सदा उत्कृष्ट व्यक्ति अपकृष्ट को देता है । दूसरी ओर, जब कोई अपकृष्ट व्यक्ति अपने से बड़े या अभ्यर्हितको कार्य में व्यापारित करे तो इसे 'अध्येषण' ( आग्रह ) कहते हैं । जब कर्ता उक्त दोनों में से किसी एक व्यापार में लगा हो तथा प्रयोज्य व्यक्ति ( उत्कृष्ट या अपकृष्ट ) की क्रिया के सम्पादन के अनुकूल आचरण भी कर रहा हो तो उसे शास्त्रविहित हेतुसंज्ञा होती है । प्रयोजक का यही मुख्य व्यापार है कि वह प्रयोज्य की क्रियासिद्धि के अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करता है ।
यद्यपि हेतुसंज्ञा के इस लक्षण के प्रथम अंश से ही लक्षण की पूर्ति हो जाती है तथापि 'तत्समर्थानि चाचरन् ' ( प्रयोज्य की क्रियासिद्धि के अनुकूल चेष्टाएँ करते हुए ) -- इतना अंश इसलिए अधिक रखा गया है कि अचेतन भिक्षादि पदार्थों को भी हेतुसंज्ञा हो सके, जिससे 'भिक्षा वासयति' ( भिक्षा की सुलभता उसे वहाँ रहने की प्रेरणा देती है ), 'पुस्तकमासयति' ( पुस्तक उसे वहाँ बिठाये हुए है ) इत्यादि प्रयोगों का समर्थन हो । इस विषय में कात्यायन 'हेतुमति च' ( पा० ३।१।२६ ) सूत्र के वार्तिक में हेतुको निमित्त का पर्याय मानते हैं, क्योंकि भिक्षा, पुस्तक आदि हेतु संज्ञक शब्द वास्तव में निमित्त हैं - ' हेतु निर्देशश्च निमित्तमात्रं, भिक्षादिषु दर्शनात्' । इनमें निवासादि की अनुकूलता के रूप में अभिप्राय आरोपित होता है, अतः भिक्षादि की प्रयोजकता निःसन्दिग्ध है। हेलाराज बतलाते हैं कि जैसे किसी के अभिप्राय का अनुविधान करने वाला प्रयोज्य है, उसी प्रकार उस अभिप्राय का प्रकाशन करने वाला प्रयोजक होता है । अतः समर्थाचरण करना सर्वत्र प्रयोजक का मुख्य व्यापार हैयह सिद्ध हुआ ।
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हेतु शब्द पाणिनि-तंत्र में दो अर्थों में प्रयुक्त होता है – एक तो उपर्युक्त प्रयोजक को हेतु कहते हैं, जिस अर्थ में यह कारक है । दूसरा लौकिक हेतु कारण के अर्थ में आता है । फल-साधन के योग्य पदार्थ को यह लौकिक हेतु कहते हैं जो द्रव्यादि के विषय में ही होता है; अनिवार्यतया क्रिया के ही विषय में नहीं । इसीलिए यह कारक नहीं है । इसका विशद विचार हम करण कारक के साथ इसका भेद दिखलाते हुए करेंगे । सुविधा के लिए इन दोनों हेतुओं को क्रमशः हम पारिभाषिक ( प्रयोजक हेतु, कारक ) तथा लौकिक ( कारणार्थक, अकारक ) हेतु कहते हैं । पाणिनि के सूत्रों में यथास्थान इन दोनों अर्थों में हेतु का प्रयोग हुआ है, जिसकी विशेष प्रतिपत्ति व्याख्यान के द्वारा ही की जा सकती है । उदाहरणार्थ 'हेतुमति च' ( ३।१।२६ ), 'भियो हेतुभये षुक्' ( ७।३।४० ) इत्यादि में पारिभाषिक हेतु का ग्रहण है । जैसेदेवदत्तः कारयति, मुण्डो भीषयते । यहाँ देवदत्त तथा मुण्ड हेतुकर्ता हैं । द्वितीय सूत्र
१. ‘अयमेव च मुख्यः प्रयोजकव्यापारो यत्प्रयोज्यक्रियासम्पत्तिसमर्थाचरणम्' । - हेलाराज ३, पृ० ३२६