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कर्तृ-कारक
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नव्यन्याय में कर्तृ-विचार त्रिमुनि तथा भर्तृहरि में कर्तृत्व का विवेचन इतना व्यापक है कि परवर्ती ग्रन्थकारों के समक्ष कर्तृत्व-दर्शन में कुछ नव्यता का प्रदर्शन करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है । तथापि अभिनव शब्दावली के प्रयोग द्वारा अदृष्टपूर्व रीति से कर्तत्व का विचार नव्यन्याय तथा उससे प्रभावित व्याकरणग्रन्थों में भी दिखलायी पड़ता है।
प्राचीन तथा नव्यन्याय के संक्रमण-काल में निम्नलिखित लक्षण नैयायिकों के बीच बहुत प्रचलित जान पड़ता है-'कर्तृत्वं चेतरकारकाप्रयोज्यत्वे सति सकलकारकप्रयोक्तृत्वलक्षणं ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वम्''। तदनुसार कर्ता वह है जो कर्मकरणादि दूसरे कारकों से प्रयोजित नहीं हो प्रत्युत सभी कारकों को स्वयं प्रयोजित करे । इसके साथ-साथ वह ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न का आधार भी होता है अर्थात् ये तीनों कर्ता में निहित होते हैं । इस लक्षण में दो भाग हैं । प्रथम भाग कर्ता तथा कारकान्तर के सम्बन्ध का निर्धारण करता है, तो द्वितीय भाग कर्ता की स्वरूप-निष्ठ विशेषता का निरूपक है।
इस लक्षण का प्रथम भाग व्याकरण-दर्शन में मुख्यतः पतंजलि तथा भर्तहरि के विचारों का संक्षिप्त रूप है, क्योंकि सभी साधनों के विद्यमान रहने पर कर्ता स्वतन्त्रतापूर्वक सबका 'प्रवर्तयिता' है, यह सिद्धान्त पतंजलि बहुत पहले ही रख चुके थे। भर्तहरि भी कर्ता की स्वतन्त्रता के कारणों का उल्लेख करते हुए यह दिखला चुके हैं कि सभी साधनों के आगमन के पूर्व कर्ता का व्यापार आरम्भ हो जाता है । तदनुसार यह कहने में कोई नवीनता नहीं कि दूसरे कारक कर्ता को प्रयोजित नहीं कर सकते। अतएव यह लक्षणांश न्यूनाधिक रूप में प्राचीन वैयाकरण मत का ही आंशिक रूपान्तर है । भवानन्द अपने कारकचक्र में इस लक्षण का उल्लेख मतान्तर के रूप में करते हैं जिसका निरसन करना वे अनिवार्य समझते हैं। यहाँ पूर्वपक्षी का कथ्य है कि यदि केवल 'कारकान्तरप्रयोजकत्व' के रूप में कर्तृलक्षण किया जाता तो अतिव्याप्ति हो जाती। 'देवदत्तः कुठारेण वृक्षं छिनत्ति' इस वाक्य में कुठार को भी कर्तृत्वापत्ति होती है, क्योंकि कुठार से भिन्न वृक्षरूप कर्म-कारक ( कारकान्तर ) है, जिससे जन्य छेदनात्मक कार्य के अनुकूल जो वृक्ष-कुठार-संयोगव्यापार है उसे कुठार ही प्रयोजित करता है-अतः कुठार कर्ता हो जायगा और अतिव्याप्ति-दोष उत्पन्न होगा। इसलिए उक्त दोष के निरसनार्थ 'कारकान्तराप्रयोज्यत्वे सति' यह विशेषण लमाया गया
१. सर्वदर्शनसंग्रह, अक्षपाद-दर्शन, पृ० ५०६ ।।
२. “यत्तु 'कारकान्तराप्रयोज्यत्वे सति कारकान्तरप्रयोजकत्वं कर्तृत्वम्' इति ।... तदप्यसत् । ईश्वरप्रयोज्यानां संसारिणां तत्तत्क्रियास्वकर्तृतापत्तेः" ।
-कारकचक्र, पृ० १३