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कर्तृ-कारक
का ईषत् नवीन संस्करण प्रस्तुत करते हैं- 'स्वतन्त्रत्वं च कारकान्तरव्यापारानधीनव्यापारवत्त्वे सति कारकत्वम्' ( व्यु० वा०, पृ० २१५ ) । स्वतंत्र उस प्रकार के व्यापार से युक्त कारक है जो दूसरे कारकों के व्यापार के अधीन न हो । काष्ठ में व्यापार है जो पुरुष के व्यापार के अधीन क्रिया के अनुकूल है, किसी दूसरे के व्यापार के अधीन क्रिया के अनुकूल नहीं । अतएव काष्ठ की स्वतन्त्रता सिद्ध होती है । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है । काष्ठ में लक्षित कर्तृत्व की सिद्धि के लिए कारकान्तर
अर्थ 'कर्तृभिन्न कर्मादि कारक' है । यदि 'काष्ठभिन्न कारकान्तर' अर्थ लेंगे तो कर्तृभूत पुरुष भी इसमें पदार्पण करेगा और उसके व्यापार के अधीन काष्ठ - व्यापार होने से काष्ठ को कर्तृत्व नहीं हो सकेगा । गदाधर के अनुसार उक्त लक्षण में 'अनधीन' - पर्यन्त जो शब्द समूह लगाये गये हैं उनका फल यही है कि 'चैत्रः काष्ठैः स्थाल्यां पचति' के स्थल में केवल चैत्र को ही कर्तृत्व हो सकता है । उसकी उपस्थिति में दूसरे किसी को कर्तृत्व नहीं हो सकता ।
नव्यव्याकरण तथा कर्तृत्व- लक्षण
नव्यन्याय में जिस प्रकार कृत्याश्रय के आधार पर कर्तृलक्षण प्रकार नव्यव्याकरण में 'व्यापार के आश्रय' के चारों ओर यह भट्टोजिदीक्षित, कौण्डभट्ट तथा नागेश- -इन तीनों प्रख्यात केन्द्रीभूत लक्षण में सहमति है ।
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किया गया है उसी लक्षण घूमता है । वैयाकरणों की इस
भट्टोजिदीक्षित अपनी सिद्धान्तकारिका ( सं० २४ ) में आश्रय को कर्तृविभक्ति का अर्थ मानते हुए शब्दकौस्तुभ में यह स्वीकार करते हैं कि क्रिया में स्वतन्त्र रूप से विवक्षित पदार्थ कर्ता है । अब यह जिज्ञासा होती है कि यह स्वतन्त्रता क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है - ' धातूपात्तव्यापाराश्रयत्वं स्वातन्त्र्यम् २ | किसी धातु के द्वारा जिस व्यापार का ग्रहण ( उपादान ) किया जाता हो उसी व्यापार का आश्रय होना उस धातु से सम्बद्ध क्रिया की निष्पत्ति करने में कर्ता की स्वतन्त्रता है । कर्तृलक्षण में नव्यवैयाकरण प्रायः कर्ता को लक्षित न कर 'स्वतन्त्र' को परिष्कृत करते हैं, क्योंकि स्वतन्त्र रूप कर्तृलक्षण का परिष्कार करने से लक्ष्य तथा लक्षण दोनों की व्याख्या हो जाती है । दीक्षित के द्वारा अन्यत्र किया गया स्वातन्त्र्य - परिष्कार इस प्रकार है - 'प्रधानीभूतधात्वर्थं प्रत्याश्रयत्वं स्वातन्त्र्यम् । धातु प्रधान अर्थ का आश्रय होना स्वातन्त्र्य है । दीक्षित के मत में यहाँ धातु के प्रधान अर्थ से व्यापार
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२. श० कौ० भाग २, पृ० १३९ । ३. प्रौढ़मनोरमा, पृ० ५०६ ।
१. 'क्रिया क्वापि न कर्तृविनाकृतेति कारकान्तराणां कर्तृसापेक्षत्वनियमः । कर्तु - वापादानादिविनाकृताया अपि सम्बन्ध इति न कारकान्तरापेक्षानियमः ' ।
— विभक्त्यर्थविचार, पृ० १९४