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कर्तृ-कारक
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कर्तृवाचक प्रत्यय का सहोच्चारण धातु के साथ हो ( जैसे ---पठति, पचति, पाठकः; पक्ता इत्यादि ) तभी धात्वर्थ व्यापार का आश्रय कर्ता कहलाता है। 'देवदत्तः पचति' में कर्तृवाचक प्रत्यय ( तिप् ) धातु के साथ उच्चरित है, अत: विक्लेदनानुकूल व्यापार का आश्रय देवदत्त कर्ता है।
यह परिष्कार हमें अन्योन्याश्रय में डाल देता है, क्योंकि कर्तप्रत्यय का बोध कर्ता के आधार पर और कर्ता का बोध कर्तवाचक प्रत्यय के आधार पर होगा। परन्तु हरिदीक्षित का यह आशय नहीं है कि सर्वत्र कर्तप्रत्यय के समभिव्याहार के आधार पर ही कर्ता का निरूपण हो । यह विशेषण तो वास्तव में कर्म के अभिधान की दशा में उसमें कर्तृत्व के वारणार्थ है कि कर्मप्रत्यय हटाकर कर्तप्रत्यय लगाकर देख लें कि प्रधान धात्वर्थ का आश्रय कौन है ? तदनुसार यदि वह अनभिहित हो तब भी कर्तृत्वशक्ति से युक्त तो है ही। ___ कौण्डभट्ट भट्टोजिदीक्षित की मान्यता स्वीकार करते हैं कि धातु के द्वारा उपात्त व्यापार को धारण करनेवाला स्वतंत्र ( कर्ता ) कहलाता है । इसीलिए जब स्थाली आदि अचेतन के व्यापार भी धातु के द्वारा अभिहित होते हैं तब उन्हें भी कर्तृत्वशक्ति प्राप्त होती है। यहाँ भी उपर्युक्त 'कर्तृ-प्रत्यय-समभिव्याहार' विशेषण लगाना आवश्यक है । यद्यपि भट्टोजिदीक्षित के समान भूषणकार भी इस विषय में मौन हैं; किन्तु इस सत्य की उपेक्षा उनके टीकाकार नहीं कर पाते कि उसके अभाव में कर्मवाच्यगत धातु के द्वारा अनभिहित होने के कारण देवदत्तादि को कर्तृत्व नहीं प्राप्त हो सकता।
कौण्डभट्ट इस स्थल में एक अन्य महत्त्वपूर्ण विषय का विवेचन करते हैं। एक ही वस्तु बुद्धि के अवस्था-भेद या विवक्षा के कारण कर्ता, कर्म और करण भी हो सकती है तथा धातु द्वारा ( कर्तवाच्य के उदाहरणों में ) किसी के व्यापार का अभिधान होने पर उसे कर्ता कहा जा सकता है। दूसरी ओर, ब्रह्मसूत्र के 'कर्मकर्तृव्यपदेशाच्च' ( १।२।४ ) इस सूत्र के अन्तर्गत 'एतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मि' (छा० उ० ३।१४।४-इस शरीर से मुक्त होने पर मैं उस परमात्मा को प्राप्त करूँगा )-इस वाक्य में व्यास का निर्णय है कि 'मनोमयः प्राणशरीरः' में निर्दिष्ट मनोमयादि गुण आत्मा ( या ब्रह्म ) के नहीं अर्थात् ब्रह्म उस स्वरूप का नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त वाक्य में आत्मा को प्राप्ति का कर्म कहा गया है ( एतम् ) और उसे प्राप्ति-क्रिया का कर्ता भी कहा गया है । 'एतम्' के द्वारा उसका प्राप्य होना तथा 'अभिसम्भवितास्मि' के द्वारा उसका प्रापक होना निर्दिष्ट किया गया है। इति या भेद के बिना कर्ता तथा कर्म का उक्त रूप में व्यपदेश करना सम्भव नहीं, अतः दोनों
१. 'पक्वस्तण्डुलो देवदत्तेनेत्यत्र व्यापारस्य फलं प्रति विशेषणत्वाद् देवदत्तस्य कर्तृत्वानापत्तिरिति कर्तृप्रत्ययसमभिव्याहार इति' । ( द्रष्टव्य दर्पणटीका भी, पृ. १५४)
-20 भू० सा. काशिका, पू. १७५