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संस्कृत-ग्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
प्रयोज्य-व्यापार से सम्बद्ध कर्तृशक्ति नहीं। उदाहरणार्थ ओदन विक्लित्ति में स्वतंत्र होने पर भी कर्तृ संज्ञा प्राप्त नहीं करता प्रत्युत विक्लेदन करना देवदत्त का व्यापार है, जिसके द्वारा ईप्सिततम होने के कारण कर्मसंज्ञा होती है-पाचयत्योदनम् । । ऐसा होने पर कर्ता और कर्म दोनों संज्ञाओं की युगपत् प्राप्ति नहीं हो सकती और इसीलिए विप्रतिषेध-परिभाषा भी नहीं लग सकती है। फलतः कर्तृसंज्ञा की अप्राप्ति होने से यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि गत्यादि के विषय में भी कर्मसंज्ञा होती है । अतएव 'गतिबुद्धि०' सूत्र नियम करने के ही लिए उपक्रान्त हुआ है, क्योंकि उक्त प्रकार से इसकी पाक्षिक प्राप्ति तो है ही। पच्-आदि धातुओं के विषय में नियमपूर्वक प्रधानकार्य का प्रसारण होता है, जिसके अनन्तर गौणक्रिया स्वतंत्रतारूप स्वकार्य का कर्तृसंज्ञा के रूप में निर्द्वन्द्व प्रवर्तन करती है । इस पूरे विवेचन का सारांश यह है कि गत्यादि धातुओं के विषय में प्रयोजक व्यापार की प्रधानता होने से प्रयोज्य ईप्सिततम हो जाता है, जब कि अन्य धातुओं के विषय में उक्त नियामक सूत्र के अभाव में प्रयोज्य कर्तृसंज्ञक ही रहता है । वास्तव में प्रयोज्य की विभक्ति प्रयोग पर निर्भर करती है, कर्मत्व-कर्तृत्व-विवेचन से कोई निश्चित सूत्र पता नहीं लगता।
भर्तृहरि अब अंतिम शंका रखते हैं कि जब प्रयोजक को हेतु कहते हैं तो फलरूप कर्म को भी क्रिया के प्रति प्रयोजक क्यों नहीं कहा जाय ? और इसीलिए वह भी हेतुसंज्ञा का अधिकारी क्यों नहीं माना जाय ? यहाँ समाधान के लिए कर्म और हेतु का स्पष्ट भेद समझ लेना चाहिए। कर्म जहाँ क्रिया का प्रेरक है वहाँ हेतु कर्ता का प्रयोजक है। निर्वृत्ति, विकार तथा प्रतिपत्ति के द्वारा क्रमशः निर्वयं, विकार्य और प्राप्य के रूप में त्रिविध कर्मों का सम्पादन करने के कारण क्रियाफलात्मक कर्म अपनी स्थिति की व्यवस्था के लिए क्रिया को प्रेरित करता है । दूसरी ओर, हेतु क्रियार्थी होते हुए भी साधनों का विनियोग करने के समय साक्षात् क्रिया को नहीं, प्रत्युत कर्ता को प्रेरित करता है । अब उसके समर्थन में कर्ता की प्रवृत्ति आरम्भ होती है। इससे स्पष्ट है कि हेतु तथा कर्म के विषय-क्षेत्र पृथक हैं । उत्पत्ति-प्रभृति उपकारों के कारण क्रिया की प्रवृत्ति कर्मार्थ होती है, अतः कर्म को क्रिया का प्रयोजक कहा गया है । यह लौकिक व्यवहार है कि जो जिसके लिए होता है वह उसका प्रयोजक कहलाता है ( 'यद्धि यदर्थं तत्तस्य प्रयोजकम्'--हेलाराज ), क्योंकि उसी के उद्देश्य से उसकी प्रवृत्ति होती है। दूसरे कारक क्रिया के निमित्त प्रवृत्त होते हैं, न कि क्रिया उनके निमित्त प्रवृत्त होती है। इसलिए वे उसके ( क्रिया के ) प्रयोजक नहीं कहे जा सकते । कर्म-कारक उसका प्रयोजक अवश्य है।
१. द्रष्टव्य-हेलाराज ३, पृ० ३३०-१। २. 'क्रियायाः प्रेरकं कर्म हेतुः कर्तुः प्रयोजकः ।
कर्मार्था च क्रियोत्पत्तिः संस्कारप्रतिपत्तिभिः॥
-वा०प० ३।७।१२८